Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 03
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 365
________________ श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. ३५५ तेनुं (अरकयनिहाणं के०) अक्षय अरखूट निधान ते (दसण के०) सम केत जे. जेम निधानविना रत्ननु अवस्थान न पामी, तेम सम्यक्त्वविना मूलोत्तरगुणरूप रत्न पण न पामीयें. ए मूलोत्तरगुण जे जे, ते अमूल्य ले, माटे रत्ननुं उपमान दीडूं, अने पूर्वोक्त समस्त गुणरूपजे रत्न तेनो आधार समकेत डे, गुण आधेय डे माटें समकेतने निधाननी उपमा दीधी. एवं जे मनमां नाव, ते चोथी नावना जाणवी ॥ ५७ ॥ तथा महोटी पृथ्वी एटले जेनुं १८०००० योजन प्रमाण जाम पणे पृथ्वीपिंग , तलीयामां तीढि सातराज प्रमाण विस्तार वाली ते जे म असंख्याता दीपसमुह परिवेष्टिता सचराचर जीवलोक तेनो थाधार , तेम (चरणजीवलोअस्स के०) चरण जे देशविरति सर्वविरति रूप चा रित्र प्रधान एवो जे जीवलोक एटले नव्यप्राणीनो गण, तेनो (थाहारो के) अधार ते दायिक, दायोपशमिक, औपशमिक, वेदक अने सास्वाद न, ए पांच प्रकार- जे (सम्मत्त के०) सम्यक्त्व, तड़प (महाधरण। के०) महोटी पृथ्वी ने, केम के? ए समकेतरूप पृथ्वीना आधारविना चारित्ररूप जीवलोक रही शके नहीं, एवी नावना ते पांचमी नावना. तथा (सुय के०) श्रुत ते हादशांगीरूप अने (सील के०) शील जे आचार ते सर्वसावद्य वर्जनरूप क्रिया एनो अनिप्राय कहीयें बैयें. सम्य गज्ञान अने सम्यक् चारित्र, ए बेतु परस्पर मल्यां थकां अर्थ साधक था य ॥ यतः ॥ संजोग सिमी फलं वयंति, न इग्ग चक्केण रहो पयाइ ॥ अंधोय पंगूय वणे समिच्चा, ते संपनत्ता नयरं पविता ॥१॥ तेमाटे श्रुतशी लरूप जे (मणुनरसो के०) मनोज्ञ रस , ते प्रत्ये (दसणवर के० ) वर प्रधान समकेत दर्शन रूप जे (जायणे के०) नाजन, पात्र विशेष तेने विषे (धर के०) स्थापे, धरी राखे, कारण के समकेत रूप नाजनवि ना श्रुतशीलरूप मनोज्ञ रस रही शके नहीं. एबहीनावना जाणवी॥५॥ हवे ए बनावनाने विषे चंश्लेखानुं दृष्टांत कहीयें बैये. या जंबुद्दीपने विषे मलय नामें पर्वतनी उपर बत्र समान वटवृद ,तिहां शुकमिथुन व से बे,ते मिथुनने रूडं देखी कोश्क विद्याधर लइ गयो. तेणें सज मणि मय पांजरमा रारव्यु. सारा सारा कर दाडिम बीजादिकनु नोजन करा वे, समस्त कला नणावी. बए दर्शनना नेद शीवाव्या, जिहां पोतें जाय,

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