Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 03
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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३५२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. करी तुं हां कलंक पामी. वली तें जे तापसने माखो हतो, तेणे करी तुं कुःख पामी तथा अनंगदेवें तहारा पापने सहाय की ,तेमाटें इहां चित्रले खायें तहारी साथै कुःख जोगव्युं तथा एकवीश घडी पर्यंत हंस हंसीने वियो ग पाड्यो,तेथी तुं एकवीश वर्षसुधी पतिनी साथें वियोग पामी,एवी कर्मनी विपरीतता जाणीने कर्म बेदवाने अर्थ साधुनो धर्म तथा श्रावकधर्म पालो. ___ मृगांकलेखा केवलीना मुखथी पूर्वनवनां कर्म सांजली ते कर्मोने आ लोइ पडिक्कमी प्रायश्चित्त आलो शुद्ध श्रावकधर्म पालती हवी. सागरचंड पण समकेतमूल श्रावकधर्म आदरी धर्मकार्यने विषे तत्पर थयो. अंत सम यें सागरचंड तथा मृगांकलेखा बेदु जण दीक्षा लइ कर्मक्ष्य करी शिवपद ने अनुनवता हवा. ए समकेतना बागारने विषे मृगांकलेखानी कथा कही.
इति महोपाध्यायश्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचिते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशिकानामनि श्रीसम्यक्त्वसप्ततिकाप्रकरण बालावबोधे सम्यक्त्वषडाकारस्वरूपनिरूपण नामा दशमोऽधिकारः समाप्तः ॥ १० ॥
हवे अगीयारमुं समकेतनी ब नावनानुं हार कहे :॥ नाविक मूलनूध, उबारनूयं पश्ठ निहि नूथ ॥ आहार जायण मिमं, सम्मत्तं चरण धम्मस्त ॥ ५५॥ अर्थः-(सम्मत्तं के०) समकेत प्र त्ये (नाविज के०) एवं नावीनं विचारी जे (चरणधम्मस्स के०) चा रित्र धर्मनुं (मूलनूकं के) मूलनूत जेम जे वृदनु मूल सबल होय ते वृद वायरादिकें पडे नहीं. सुकाइ पण न जाय, तथा तेने शीत तापना परानव पण न थाय, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, फूल फलें करी विस्तार पा मे, तेम चारित्ररूप धर्मनुं समकेतरूप मूल जो दृढ होय, तो ते चारित्रध म देव,दानव, मानवादिक रूप वायरायें चलाव्यो चले नहीं, परिसहादिकें विणसे नहीं, तेमाटें समकेतने मूलभूत कहीयें. ए प्रथम नावना जाणवी. ___तथा समकेत जे जे ते चारित्र धर्मरूप राजनगरनुं (उबारनूचं के०) धारभूत ने एटले चारित्रधर्मरूप राज्यनगर तथा राज्यमंदिर ले ते मांहे जो समकेंतरूप धार होय तो प्रवेश कराय. ते चार सबल जोश्य जे हार मि थ्यात्वमोहनीय कर्मादि रिपुयें नांगी शकाय नहीं. जेमां प्रमादरूप चोर प्र वेश करी शके नहीं, तेमाटे समकेतने हार नूत कहीयें ए बीजी नावना.
३ तथा चारित्रधर्मरूप प्रासाद जे , तेनो समकेत जे , ते (पश्ठ

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