Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 129
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-415 जैन ज्ञानमीमांसा -123 कस्यस्विद्वनम्" कहकर त्याग एवं भोग-इन दो विरोधी तथ्यों का समन्वय करता है एवं एकान्त-त्याग और एकान्त-भोग- दोनों को सम्यक् जीवन-दृष्टि के लिए अस्वीकार करता है। जीवन न तो एकान्त-त्याग पर चलता है और न एकान्त-भोग पर, बल्कि जीवनयात्रा त्याग और भोगरूपी दोनों चक्रों के सहारे चलती है। इसी प्रकार, कर्म और अकर्म-सम्बन्धी एकान्तिक-विचारधाराओं में समन्वय करते हुए ईशावास्य (2) कहता है कि "कर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छता समाः", अर्थात, मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करते हुए सौ वर्ष जीये। निहितार्थ यह है कि जो कर्म सामान्यतया सकाम या सप्रयोजन होते हैं, वे बन्धनकारक होते हैं, किन्तु यदि कर्म निष्काम भाव से बिना किसी स्पृहा के हों, तो उनसे मनुष्य लिप्त नहीं होता, अर्थात् वे बन्धनकारक नहीं होते। निष्काम कर्म की यह जीवन-दृष्टि व्यावहारिक-जीवन-दृष्टि है। भेद-अभेद का व्यावहारिक दृष्टि से समन्वय करते हुए उसी में आगे कहा गया है यस्तु सर्वाणिभूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेशुचात्मानं ततो न विजुगुप्सते / / (ईशा. 6) अर्थात्, जो सभी प्राणियों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है, वह किसी से भी घृणा नहीं करता। यहां जीवात्माओं में भेद एवं अभेद-दोनों को एक साथ स्वीकार किया गया है। यहाँ भी ऋषि की अनेकान्तदृष्टि ही परिलक्षित होती है, जो समन्वय के आधार पर पारस्परिक-घृणा को समाप्त करने की बात कहती है। एक अन्य स्थल पर विद्या (अध्यात्म) और अविद्या (विज्ञान) (ईशा.10) में तथा सम्भूति (कार्यब्रह्म) एवं असम्भूति (कारणब्रह्म) (ईशा. 12) अथवा वैयक्तिकता और सामाजिकता में भी समन्वय करने का प्रयास किया गया है। ऋषि कहता है कि जो अविद्या की उपासना करता है, वह अन्धकार में प्रवेश करता है और जो विद्या की उपासना करता है, वह उससे भी गहन अन्धकार में प्रवेश करता है (ईशा. 9) और वह, जो दोनों को जानता है, या दोनों का समन्वय करता है, वह अविद्या से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर विद्या से अमृत-तत्त्व को प्राप्त करता है (ईशा. 11) / यहाँ विद्या और * अविद्या अर्थात् अध्यात्म और विज्ञान की परस्पर समन्वित साधना अनेकान्तदृष्टि

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184