Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 170
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-456 जैन ज्ञानमीमांसा-164 दर्शन संभव नहीं होता / वस्तुतः, शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, हेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक-मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गये चित्र हैं और आपेक्षिक-रूप से सत्य हैं। द्रव्य-दृष्टि और पर्याय-दष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है। अतः, एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है, वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। परमयोगी आनन्दघनजी लिखते षट् दरसण जिन अंग भणाजे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षटदर्शन आराधे रे / / 1 / / जिन सुर पादप पाय बखाणुं, सांख्य जोग दोय भेदे रे / आतम सत्ता विवरण करता, लही दुय अंग अखेदे रे ||2|| भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनपर दोय कर भारी रे। लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे।। 3 / / लोकायतिक सुख कूख जिनवर की, अंश विचार जो कीजे। तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे / / 4 / / जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंग रे। अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे।। 5 / / अनेकांत धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में : सभी धर्म-साधना-पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जहाँ जैन धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता होना और बौद्ध-दर्शन की साधना का लक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है, वहीं वेदान्त में अहं और आसक्ति से ऊपर उठना ही मानव का साध्य बताया गया है, लेकिन क्या एकांत या आग्रह वैचारिक- राग, वैचारिक आसक्ति, वैचारिक-तृष्णा अथवा वैचारिक–अहं के ही रूप नहीं हैं और जब तक वे उपस्थित हैं, धार्मिक-साधना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी? जिन साधना-पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया, उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक-हिंसा का प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर, साधना के वैयक्तिक-पहलू की दृष्टि से मताग्रह

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