Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 179
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-465 जैन ज्ञानमीमांसा -173 चलती है कि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और एक के अभाव में दूसरे की कोई सत्ता नहीं है। सामाजिक-नैतिकता से जुड़ा एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न हैवैयक्तिक-कल्याण और सामाजिक-कल्याण में किसे प्रमुख माना जाय? इस समस्या के समाधान के लिए भी हमें अनेकान्त-दृष्टि को ही आधार बनाकर चलना होगा। यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं, व्यक्ति के हित में समाज का हित है और समाज के हित में व्यक्ति का हित समाया है, तो इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। जो लोग वैयक्तिक-हितों और सामाजिक हितों को परस्पर निरपेक्ष मानते हैं, वे वस्तुतः व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों से अनभिज्ञ हैं। वैयक्तिक-कल्याण और सामाजिक-कल्याण परस्पर भिन्न प्रतीत होते हुए भी एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं। हमें यह मानना होगा कि समाज के हित में ही व्यक्ति का हित है और व्यक्ति के हित में समाज का हित / अतः, एकान्त-स्वार्थपरतावाद और एकान्त-परोपकारवाद-दोनों ही संगत सिद्धान्त नहीं हो सकते। न तो वैयक्तिक-हितों की उपेक्षा की जा सकती है, न ही सामाजिक-हितों की। अनेकान्त-दृष्टि हमें यही बताती है कि वैयक्तिक-कल्याण में सामाजिक-कल्याण और सामाजिक-कल्याण में वैयक्तिक-कल्याण अनुस्यूत है। दूसरे शब्दों में, वे परस्पर सापेक्ष हैं। पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद-दृष्टि का उपयोग कौटुम्बिक-क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। सामान्यतया, पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं- पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव-प्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान / एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित होता है, तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि बह ऐसा जीवन

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