Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 172
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-458 जैन ज्ञानमीमांसा-166 मूलभूत एकता और साधनपरक अनेकता को इंगित करता है। विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक- परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधनों के बाह्य-नियमों का प्रतिपादन किया। देशकालगत परिस्थितियों और साधकों की साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य-रूपों में विभिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी, किन्तु मनुष्य की अपने धर्माचार्य के प्रति ममता (रागात्मकता) और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप, विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिक-वैमनस्य प्रारम्भ हुआ। मुनि श्रीनेमिचन्द्र ने धर्म-सम्प्रदायों के उद्भव की एक सजीव व्याख्या प्रस्तुत की है। वे लिखते हैं- 'मनुष्य-स्वभाव बड़ा विचित्र है, उसके अहं को जरा-सी चोट लगते ही वह अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो जाता है। यद्यपि वैयक्तिक- अहं धर्म-सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है, लेकिन वही एकमात्र कारण नहीं है। बौद्धिक-भिन्नता और देशकालगत तथ्य भी इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने। उनके अनुसार, सम्प्रदाय बनने के निम्न कारण हो सकते (1) ईर्ष्या के कारण, (2) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की लिप्सा के कारण, (3) किसी वैचारिक मतभेद मताग्रहण के कारण, (4) किसी आचार-संबंधी नियमोपनियम में भेद के कारण, (5) किसी व्यक्ति या पूर्व सम्प्रदाय द्वारा अपमान या खींचतान होने के कारण, (6) किसी विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से और (7) किसी साम्प्रदायिक-परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपर्युक्त कारणों में अंतिम दो को छोड़कर शेष सभी कारणों से उत्पन्न सम्प्रदाय आग्रह, धार्मिक-असहिष्णुता और साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देते हैं। विश्व-इतिहास का अध्येता इसे भलीभांति जानता है कि

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