Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 164
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-450 जैन ज्ञानमीमांसा-158 1. (अ. अ)45 उ अवक्तव्य है, 2. ~ अD उ अवक्तव्य है, 3. (अ)२ उ अवक्तव्य है / सप्तभंगी के शेष चारों भंग सांयोगिक हैं। विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनका महत्व तो अवश्य है, किन्तु इनका अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूलभंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तुस्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं, अतः इन पर यहाँ विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है। सप्तमंगी और त्रिमूल्यात्मक-तर्कशास्त्र वर्तमान युग में पाश्चात्य-तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युसाइविक ने एक नयी दृष्टि दी है, उसके अनुसार, तार्किक-निर्णयों में केवल सत्य, असत्य-ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते, अपितु सत्य, असत्य और सम्भावित सत्य- ऐसे तीन मूल्य होते हैं। इसी संदर्भ में, डॉ. एस.एस बारलिंगे ने जैन-न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर की एक गोष्ठी में किया था। जहाँ तक जैनन्याय या स्याद्वाद के सिद्धांत का प्रश्न है, उसे त्रिमूल्यात्मक माना जा सकता है, क्योंकि जैन-न्याय में प्रमाण, सुनय और दुर्नय-ऐसे तीन क्षेत्र माने गये हैं, इसमें प्रमाण सुनिश्चित सत्य, सुनय सम्भावित सत्य और दुर्नय असत्यता के परिचायक हैं। पुनः, जैन-दार्शनिकों ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य-ऐसे दो प्रकार के वाक्य मानकर प्रमाणवाक्य को सकलादेश (सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य) और नयवाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य) कहा है। नयवाक्य को न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य, अतः सत्य और असत्य के मध्य एक तीसरी कोटि आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य मानी जा सकती है। पुनः, वस्तुतत्त्व की अनन्त- धर्मात्मकता अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं करती है और स्याद्वाद उस कथित सत्यता के अतिरिक्त अन्य सम्भावित सत्यताओं को स्वीकार करता है। इस प्रकार, जैनदर्शन की वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता तथा प्रमाण,

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