Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 132
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-418. जैन ज्ञानमीमांसा-126 महिषत्व, अश्वत्व आदि का अभाव होना भी आवश्यक है। गाय गाय हैयह निश्चय तभी होगा, जब हम यह निश्चय कर लें कि उसमें गाय के विशिष्ट गुणधर्म पाये जाते हैं और बकरी के विशिष्ट लक्षण नहीं पाये जाते हैं, इसलिए प्रत्येक वस्तु में जहाँ अनेकानेक भावात्मक-धर्म होते हैं, उसमें अनन्तानन्त अभावात्मक-धर्म भी होते हैं, अनेकानेक धर्मों का सद्भाव और उससे कई गुना अधिक धर्मों का अभाव मिलकर ही उस वस्तु का स्वलक्षण बनाते हैं। भाव और अभाव मिलकर ही वस्तु के स्वरूप.को निश्चित करते हैं। वस्तु इस-इस प्रकार की है और इस-इस प्रकार की नहीं है, इसी से वस्तु का स्वरूप निश्चित होता है। वस्तुतत्त्व की अनैकांतिकता वस्तु या सत् की परिभाषा को लेकर विभिन्न दर्शनों में मतभेद पाया जाता है। जहाँ औपनिषदिक और शांकर-वेदान्तदर्शन 'सत्' को केवल कूटस्थनित्य मानता है, वहाँ बौद्धदर्शन वस्तु को निरन्वय, क्षणिक और उत्पाद-व्ययधर्मा मानता है। सांख्यदर्शन का दृष्टिकोण तीसरा है। वह जहां चेतन सत्ता पुरुष को कूटस्थ-नित्य मानता है, वहीं जड़-तत्त्व प्रकृति को परिणामी-नित्य मानता है। न्याय-वैशेषिक–दर्शन जहाँ परमाणु, आत्मा आदि द्रव्यों को कूटस्थ-नित्य मानता है, वहीं घट-पट आदि पदार्थों को मात्र उत्पाद-व्ययधर्मा मानता है। इस प्रकार, वस्तुतत्त्व की परिभाषा के सन्दर्भ में विभिन्न दर्शन अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाते हैं। जैनदर्शन इन समस्त एकान्तिक अवधारणाओं को समन्वित करता हुआ सत् या वस्तुतत्त्व को अपनी अनैकान्तिक-शैली में परिभाषित करता है। जैनदर्शन में आगम-युग से ही वस्तुतत्त्व को अनैकान्तिक-शैली में परिभाषित किया जाता रहा है। जैनदर्शन में तीर्थंकरों को त्रिपदी का प्रवक्ता कहा गया है। वे वस्तु-तत्त्व को "उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा"- इन तीन पदों के द्वारा परिभाषित करते हैं। उनके द्वारा वस्तुतत्त्व को अनेकधर्मा और अनैकांतिक रूप में ही परिभाषित किया गया है। उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्यता आदि इन विरोधी गुणधर्मों में ऐसा नहीं है कि उत्पन्न कोई दूसरा होता है, विनष्ट कोई दूसरा होता है। वस्तुतः, जैनों के अनुसार, जो

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