Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 155
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-441 जैन ज्ञानमीमांसा-149 5. स्यात् अस्ति च अवक्तव्य च अ- उ वि है. (अ. अ) उ अवक्तव्य है. अथवा अ'- उवि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा विचार करते हैं तो आत नित्य है किन्तु यदि आ का द्रव्य, पर्याय दोन अनन्त अपेक्षाओं की 6. स्याद् नास्ति च अवक्तव्य च (अ)53 से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। अवक्तव्य है। अ उ वि नहीं है. यदि पर्याय की अपेक्षा से (अ.अ) विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है. नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि * से विचार करते है तो आत्मा अथवा अवक्तव्य है। अ- उ वि नहीं है. (अ) 35 अवक्तव्य है। अ उ वि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार अउ वि नहीं है करते है तो आत्मा नित्य है (अ)- अवक्तव्य है और यदि पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अथवा नित्य नहीं किन्तु यदि अपनी अ- उवि है. अनन्त अपेक्षाओं की दृष्टि अउ वि नहीं हैं से विचार करते हैं तो आत्मा (अ. अ) य उ अवक्तव्य है। अवक्तव्य है. 7. स्याद् अस्ति च, नास्ति च अवक्तव्य च ... सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक-रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का

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