Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-445 जैन ज्ञानमीमांसा -153 विद्वानों से मेरी विनती है कि वे सप्तभंगी के विशेष रूप से द्वितीय एवं तृतीय भंग के भाषा के स्वरूप पर और स्वयं उनके आकारिक-स्वरूप पर पुनर्विचार करें और आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में उसे पुनर्गठित करेंगे, तो जैन-न्याय के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि होगी। क्योंकि द्वितीय एवं सांकेतिक रूप (1) प्रथम भंग - अ द्वितीय भंग-अ उ वि है। उ नहीं है। (2) प्रथम भंग - अ, उ.वि है द्वितीय भंग-अ- ऊ~वि है। उदाहरण प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान किया गया है। अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना। जैसे : द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है। पर्यायदृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है। (2) प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर देना है। जैसे- द्रव्यदृष्टि से घड़ा नित्य है पर्यायदृष्टि से घड़ा अनित्य है। (3) प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध कर देना। जैसे - रंग की दृष्टि से यह कमीज नीली (3) प्रथम भंग - अ उ वि है। द्वितीय भंग-अ'53 वि नहीं है रंग की दृष्टि से यह कमीज पीली नहीं है। अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा अचेतन नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184