Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 139
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-425 जैन ज्ञानमीमांसा-133 अपनी बात कह सके। हम अपने ज्ञान की सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं को निरस्त नहीं कर सकते हैं / क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है? यद्यपि जैन-दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष है? इस सन्दर्भ में जैन-दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन-विचारक सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं, जबकि दूसरे कुछ विचारकों के अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। पं. दलसुखभाई मालवणिया ने 'स्याद्वादमंजरी की भूमिका में सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य बताया है, जबकि मनि श्री नगराजजी ने 'जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान' नामक पुस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने भर को ही निरपेक्ष है, क्योंकि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति से परे वह भी नहीं है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु-जगत् के ज्ञान का प्रश्न है, उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके ज्ञान का विषय अनन्त-धर्मात्मक वस्तु है, अतः सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त गुणों को अनन्त अपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या वैषयिक-ज्ञान कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन-आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु-मात्र स्याद्वाद की मुद्रा से अंकित हो, किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जहाँ तक सर्वज्ञ के आत्म-बोध का प्रश्न है, वह निरपेक्ष हो सकता है, क्योंकि वह विकल्परहित होता है। सम्भवतः, इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा था कि व्यवहारदृष्टि से सर्वज्ञ सभी द्रव्यों को जानता है, किन्तु परमार्थतः तो वह आत्मा को ही जानता है। सर्वज्ञ का आत्म-बोध तो निरपेक्ष होता है, किन्तु उसका वस्तु-विषयक ज्ञान सापेक्ष होता है। भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता और सापेक्षता सर्वज्ञ या पूर्ण के लिए भी, जो सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता

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