Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 144
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-430 जैन ज्ञानमीमांसा-138 शून्यवाद का विकास हुआ व सभी दृष्टियों का प्रहाण साधना का एक लक्ष्य बना। दूसरी ओर, महावीर ने इन विविध दार्शनिक-दृष्टियों को नकारने के स्थान पर उनमें निहित सापेक्षिक-सत्यता का दर्शन किया और सभी दृष्टियों को सापेक्ष रूप से अर्थात् विविध नयों के आधार पर सत्य मानने की बात कही। इसी के आधार पर जैन-दार्शनिकों ने अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी का विकास किया। बुद्ध एवं महावीर-दोनों का लक्ष्य व्यक्ति को एकान्तिक–अवधारणाओं में पड़ने से बचाना था, किन्तु इनके इस प्रयास में जहां बुद्ध ने उन एकान्तिक-धारणाओं को त्याज्य बताया, वहीं महावीर ने उन्हें सापेक्षिक-सत्य कहकर समन्वित किया। इससे यह तथ्य फलित होता है कि स्याद्वाद एवं शून्यवाद- दोनों का मूल उद्गम-स्थल एक ही है। विभज्यवादी-पद्धति तक यह धारा एकरूप रही, किन्तु अपनी विधायक एवं निषेधक-दृष्टियों के परिणामस्वरूप दो भागों में विभक्त हो गई, जिन्हें हम स्यावाद व शून्यवाद के रूप में जानते __ इस प्रकार, सत्ता के विविध आयामों एवं उसमें निहित सापेक्षिक–विरुद्धधर्मता को देखने का जो प्रयास औपनिषदिक ऋषियों ने किया था, वही आगे चलकर श्रमण-धारा में स्याद्वाद व शून्यवाद के विकास का आधार बना। अन्य दार्शनिक-परम्पराएँ और अनेकांतवाद यह अनेकान्त-दृष्टि श्रमण-परम्परा के अन्य दार्शनिकों में भी प्रकार-भेद से उपलब्ध होती है। संजयवेलट्ठिपुत्र का मन्तव्य बौद्ध-ग्रथों में निम्न रूप से प्राप्त होता है (1) है? नहीं कह सकता। (2) नहीं है? नहीं कह सकता। (3) है भी और नहीं भी? नहीं कह सकता। (4) न है और न नहीं है? नहीं कह सकता। इससे यह फलित होता है कि संजयवेलट्ठिपुत्र भी एकान्तवादी दृष्टि के समर्थक नहीं थे। उनकी उत्तर देने की शैली अनेकान्त-दृष्टि की ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184