Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 142
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-428 जैन ज्ञानमीमांसा-136 अच्छा है और कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्माओं का जागना (भगवतीसूत्र 12. 2. 442) / इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वक्ता को उसके प्रश्न का विश्लेषणपूर्वक उत्तर देना विभज्यवाद है। प्रश्नों के उत्तरों की यह विश्लेषणात्मक-शैली विचारों को सुलझाने वाली तथा वस्तु के अनेक आयामों को स्पष्ट करने वाली है। इससे वक्ता का विश्लेषण एकांगी नहीं बनता है। बुद्ध और महावीर का यह विभज्यवाद ही आगे चलकर शून्यवाद और स्याद्वाद में विकसित हुआ है। .. शून्यवाद और स्याद्वाद __ भगवान् बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद- इन दोनों को अस्वीकार किया और अपने मार्ग को मध्यम मार्ग कहा, जबकि भगवान् महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अपेक्षाकृत रूप से स्वीकृत करके एक विधि-मार्ग अपनाया। भगवान् बुद्ध की परम्परा में विकसित शून्यवाद और जैन-परम्परा में विकसित स्याद्वाद-दोनों का ही लक्ष्य एकान्तिक–दार्शनिकविचारधाराओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क इतना ही है कि जहां शून्यवाद एक निषेधप्रधान-दृष्टि है, वहीं स्याद्वाद में एक विधायक-दृष्टि है। शून्यवाद जो बात संवृत्ति-सत्य और परमार्थ-सत्य के रूप में कहता है, वही बात जैन-दार्शनिक व्यवहार और निश्चय-नय के आधार पर प्रतिपादित करता है। शून्यवाद और स्याद्वाद में मौलिक भेद अपने निष्कर्षों के सम्बन्ध में है। शून्यवाद अपने निष्कर्षों में निषेधात्मक है और स्याद्वाद विधानात्मक है। शून्यवाद अपनी सम्पूर्ण तार्किक-विवेचना में इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तुतत्त्व शाश्वत नहीं है, उच्छिन्न नहीं है, एक नहीं है, अनेक नहीं है, सत् नहीं है, असत् नहीं हैं, जबकि स्याद्वाद अपने निष्कर्षों को विधानात्मक रूप से प्रस्तुत करता है कि वस्तु शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है, एक भी है और अनेक भी है, सत् भी है और असत् भी है। एकान्त में रहा हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी-दोनों ही देखते हैं। इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता में शून्यवाद द्वारा प्रस्तुत शून्यता-शून्यता की धारणा और स्याद्वाद द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त की अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है, किन्तु जहाँ शून्यवादी

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