Book Title: Jain Gyan Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 149
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-435 जैन ज्ञानमीमांसा -143 ही है, फिर भी सप्तभंगी का पूर्ण विकास परवर्ती है। भगवतीसूत्र में इन भांगों पर अनेक प्रकार से चिन्तन किया गया है। उसमें मूल नय तो तीन ही रहे हैं- अस्ति, नास्ति व अवक्तव्य, किन्तु उनसे अपेक्षा–भेद के आधार पर और विविध संयोगों के आधार पर अनेक भंगों की योजना मिलती है। उसमें षडप्रदेशीय भंगों भी अपेक्षा से तेईस भंगों की योजना भी की गयी हैं। सर्वप्रथम, सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति-प्रकरण (प्रथमकाण्ड, गाथा 36) में सांयोगिक-भंगों की चर्चा की है। वहाँ सात भंग बनते हैं। सात भंगों का स्पष्ट प्रतिपादन हमें समंतभद्र, कुन्दकुन्द और उनके परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-आचार्यों में मिलने लगता है। यह स्पष्ट है कि सप्तभंगी का सुव्यवस्थित रूप में दार्शनिक-प्रतिपादन लगभग 5 वीं शती के बाद ही हुआ है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके पूर्व भंगों की अवधारणा नहीं थी। भंगों की अवधारणा तो इसके भी पूर्व में हमें मिलती है, किन्तु सप्तभंगी की एक सुव्यवस्थित योजना पांचवीं शती के बाद अस्तित्व में आयी। स्याद्वाद एवं सप्तभंगी, अनेकान्तवाद की भाषायी अभिव्यक्ति के प्रारूप हैं। अनेकांतवाद का सैद्धान्तिक-पक्ष : स्याद्वाद स्याद्वाद का अर्थ-विश्लेषण : स्याद्वाद शब्द ‘स्यात्' और 'वाद'- इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है, अतः स्याद्वाद को समझने के लिए इन दोनों शब्दों का अर्थ- विश्लेषण आवश्यक है। स्यात् शब्द के अर्थ-सन्दर्भ में जितनी भ्रान्ति दार्शनिकों में रही है, सम्भवतः उतनी अन्य किसी शब्द के सम्बन्ध में नहीं। विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा में स्यात् का अर्थ 'शायद', 'सम्भवतः', 'कदाचित् और अंग्रेजी भाषा में आदि किया गया है और इन्हीं अर्थों के आधार पर उसे संशयवाद, सम्भावनावाद या अनिश्चयवाद समझने की भूल की जाती रही है। यह सही है कि किन्हीं संदर्भो में स्यात् शब्द का अर्थ कदाचित्, शायद, सम्भव आदि भी होता है, किन्तु इस आधार पर स्याद्वाद को संशयवाद या अनिश्चयवाद मान लेना एक भ्रान्ति ही होगी। हमें यहाँ इस बात को भी स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिए कि प्रथम तो एक ही शब्द के अनेक

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