Book Title: Jain Dharm Vikas Book 03 Ank 05 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 6
________________ فم नधर्म विस.. ॥ श्रीभावकुलकम् ॥ ॥ कर्ता-आचार्यश्री विजयपद्मसूरिः ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ पणमिय थंभणपासं, सुगुणपयासं च नेमिसरिपयं ॥ विरएमि भावकुलगं, दाणाइय पुण्ण साहल्लं ॥१॥ चित्ताहीणो भावो, दुहा सुहेयरविहाणओ तत्थ ॥ संगेज्झो सुहभावो, धम्मो सुहभावसाहीणो ॥२॥ सिट्ठपयत्थालंबण, मत्थि जहिं तयणुओ सुहो भावो॥ इत्तो विवरीओ जो, असुहो से भासिओ भावो ॥३॥ न विणा तं मुहदाणं, तव सीलाई जिणिंद पयपूया ॥ चारित्ताई तत्तो, पाहणं सुद्ध भावस्स ॥४॥ भोज लवणाइ जुयं, सुस्सहजुत्तं च गायणं पवरं ॥ एवं सुहभावजुयं, जिणधम्मारांहणं गइयं असुहनिमित्तण जहा, असुहो भावो तहा सुह निमित्ता ॥ संजायइ सुहभावो, विविहाई सुहनिमित्ताई ॥६॥ जिणवयणं जिणपूया, जिणपडिमादसणं समणसेवा ॥ सुहसज्झायस्सवणं, गुणिदाणुवएसपहुरिद्धी ॥७॥ जिणपवयणसद्दहणा, तत्तत्थवियारणाइयाइपि ॥ सुहकारणाइ समए, भणियाई तत्तदंसीहिं ८॥ जिणवयणस्सवणेणं, पडिबुद्धा गोयमाइगणहारी ।। सुहभावा संजाया, साहियणिबाणसुहमग्गा ॥९॥ नियपहजणकल्लाणं, किच्चा पत्ता सिवं समाहित्था ॥ सिरिणागकेउसड्डो, जिणपूयाजायसुहभावो ॥१०॥ कमसो केवलनाणं, संपत्तो विहरिऊण वसुहाए ॥ पडिबोहिय बहुभन्वे, सिद्धो सुहभावफल मेयं ॥११॥ जिणपडिमालोयणओ, कम्मखओवसमजायसुहभावो॥ सिरिसिंजभवविप्पो, समणो जाओ तओ सूरी ॥१२ अभयकुमारप्पेसिय, जिणपडिमादसणेण संपत्तो ॥ जाइस्सरणं दिक्ख, अद्दकुमारो गयभवण्णो ॥१३॥ (अपूर्ण)Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28