Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 03
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 7
________________ ७७ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ એર મૂર્તિપૂજા. शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा. ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी) (dis. ४ ४६ था अनुसंधान ) ___ यदि सार्वजनिक धार्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी मूर्ति के संबंध में गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो यह स्पष्ट प्रमाणित हैं की मूर्ति ही प्रत्येक धर्म संस्कृति के टिकाव का मुख्य साधन है। इसके अवलंबन विना किसी भी धर्मने संसार में अपना अस्तित्व नही रखा है और न दूसरे पर प्रभाव ही अंकित किया है। आज तक जिन धर्मी का ससार में अस्तित्व दष्टि गोचर हो रहा है उनका मुख्य कारण प्रतिमा को स्वीकार करना ही है। जिस धर्म में मूर्ति (प्रतिमा) का स्थान नहीं है वह धर्म अपनी गति, स्थिति और संस्कृति चिरकाल पर्यंत कदापि कायम नहीं रख सकता है। हम देखते हैं कि जिन धर्म संस्थापकों ने प्रतिमा का सर्वथा खंडन किया है अथवा इस मान्यता को अज्ञानता मूलक बतलायी है उन्हीं धर्म नायकों का धर्म आज संसार से अपना अस्तित्व मिटाता हुआ नजर आ रहा है । जैन धर्म जो अपनी संस्कृति को और अस्तित्व को कायम रख सका है वह प्रतिमा पूजा के बल पर ही। वास्तव में जैन संस्कृति के टिकाव में मुख्य सहायकभूत प्रतिमा ही है। देखो भारत में बुद्ध देव (गौतम बुद्ध ) का जन्म होने और अपने बौद्ध धर्म का प्रचुर प्रचार करने पर भी उन को मूर्तिपूजा व्यवस्थित रूप में न होने के कारण अद्यावधि पर्यंत बुद्ध संप्रदाय का आस्तित्व प्रायः नहीं जेसा ही हो गया है। इसके विपरीत विदेशों में धर्म प्रचार न किये जाने पर भी उनकी मूर्ति पूजा से आज भी वहां बौद्ध धर्म का आशातीत प्रभाव है। . ___ आज जो जैन समाज अपना अस्तित्व इतर समाज के समक्ष सगर्व कायम रख सका है उसका अधिकांश श्रेय ईन मंदिरों और मूर्तियों को ही है । यदि ये प्राचीन मंदिर न होते तो हम आज अपना गौरव कायम नहीं रख सकते थे। ये मंदिर और मूर्तियां हमारी धर्मपरायणता प्रभु भक्ति तत्परता और जैनत्वके माहात्म्य की सूचिका हैं । इनके द्वारा हमें अपनी संस्कृति को कायम रखते और स्वधर्म का अधिकाधिक प्रचार करने में पूर्ण सहायता प्राप्त हुई है। जिन स्थानों पर साधु समाज जा नहीं सकता है अथवा गया नहीं है वहां भी वैसी ही धर्म भावना और उसी संस्कृति को कायम रखने के लिये मंदिर और मूर्तियों की आवश्यकता रहा करती है । साधु समाज सर्वत्र विचर नहीं सकता। वर्तमान में भी ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जहां कि साधुओं का आवागमन प्रायः नहीं होता है और वहां के लोक केवल मंदिरों के आधार पर अपने जैनत्व संस्कार को कायम रख रहे हैं । इन मूर्तियों को और मंदिरों को स्थान देने से मनुष्य कभी न कभी तो उस ओर अवश्य आकर्षित होता है । जो साधु समाज के

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