Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 03 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 6
________________ જૈનધર્મ વિકાસ. . सिरि विमलँचंदपरमो-ज्जोयणगुरुसव्वैदेव देवगुरू । सिरिसव्वदेवसरिं-दो सीसे तस्स पट्टहरे ॥८॥ जसभद्दणेमिचंदे-मुणिचंदीयरिय मजियदेवमहं ॥ सिरिविजयसीहमिज्ज-सिरिसोमपहंच मणिरयणं ॥९॥ जगचंद देविंदं -पुज्जे सिरिधर्मंघोससोमपहे ॥ सिरिसोमतिलयसरि-देवाइमसुंदरं णममो ॥१०॥ सिरि सोमाइम सुंदर -मुणिसुंदर रयणसेहरोपरिए ॥ लच्छीसायर सुगुरु-थुणमो सिरि सुमइसाई च ॥११॥ सिरि हेमविमलमाणं-दविमल विजयाइदाणहीर[रू । जिण धम्मगयणभाणू-परोवयारिक्कतल्लीणे ॥१२॥ सिरि सेण देवं सीहे -सूरिप्पवरे गणाहिवे सुगुणे । जिण सासणप्पईवे-नमंसिमो भत्ति बहुमाणा ॥१३॥ सिरिदाण मूरिसीसे-वायगगणिधम्मसायरे नाणी॥ वाइमयगय सीहे-खमाइयगुणे थुणमि सया ॥१४॥ तयणु गणी जसविजए-सम्मत्तपबोहसंजमाइगुणे ॥ जिणधम्मपयासयरे-कयसत्थगणे पवंदेमो ॥१५॥ अज्ज सुहम्माउ कमा-णिदंसिय। इकसद्विपट्ट हरा ॥ अगणियपहाव कलिया-तेसु निवबोहगा केई ॥१६॥ जिण सासणप्पयासा-केई सुहसील केवला केई ।। परिजवियसूरि मंता-विजा लद्धिप्पहावड्डा ॥१७॥ णिग्गंथ कोडियगणा-सुचंदवणवासिसिट्ठवडगच्छा ॥ सूरिकमेण जाया-तवाभिहाणो य जगचंदा ॥१८॥ सिरि सीहसीससच्चो-आयरियपयारिहो समुद्वारो ॥ जेण कओ किरियाए-कप्पूर खमा जिणा कमसो ॥१९॥ उत्तम पउम सुरूवा-कित्ती कत्थूर पुज्जमणिविजया ।। गुरुबुद्धिबुड्डिसीसा-संजाया णेमिसूरीसा ॥२०॥ तेर्सि पउमरकेणं-सीसेणं सूरिणा गुरुपसाया ॥ रिसिणिहिणंदिंदुमिए-विक्कमवरिसे सिए माहे ॥२१॥ वरसत्तमीइ रइया-गुरुपट्टपई विया पमोयाओ ॥ नियपर कल्लाणटुं-जहणउरी रायणयरम्मि ॥२२॥Page Navigation
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