Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 8
________________ अपनी बात (प्रथम संस्करणका प्रकाशकीय ) श्री ग० वर्णी जैन ग्रन्थमालासे श्रीयुक्त पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यकी 'जैनदर्शन' जैसी स्वतन्त्र कृतिको प्रकाशित करते हुए जहाँ हमें हर्ष होता है वहाँ आश्चर्य भी। हर्ष तो इसलिये होता है कि समाजके माने हुए विद्वानोंका ध्यान अब उत्तरोत्तर श्री० ग० वर्णी जैन ग्रन्थमालाकी ओर आकृष्ट हो रहा है। आदरणीय विद्वान् पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीकी श्रावकधर्मप्रदीप-टीकाको प्रकाशित हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि अनायास ही यह कृति ग्रन्थमालाको प्रकाशनके लिए उपलब्ध हो गई । और आश्चर्य इसलिए होता है कि ग्रन्थमालाके पास पर्याप्त साधन न होते हुए भी यह सब चल कैसे रहा है ! ___ यह तो समाजका प्रत्येक विचारक अनुभव करता है कि जिसे 'स्वतन्त्र कृति' संज्ञा दी जा सकती है, ऐसे सांस्कृतिक साहित्यके निर्माणकी इस समय बड़ी आवश्यकता है। किन्तु इस माँगको पूरा किया कैसे जाय, यह प्रश्न सबके सामने है। एक तो जैन समाज अनेक भागोंमें विभक्त होनेके कारण उसकी शक्तिका पर्याप्त मात्रामें अपव्यय यों ही हो जाता है। कोई यदि किसी कार्यको सार्वजनिक बनानेके उद्देश्यसे सहयोग देता भी है, तो सहयोग लेनेवालोंके द्वारा प्रस्तुत किये गये साम्प्रदायिक प्रश्न व दूसरे व्यामोह उसे बीचमें ही छोड़नेके लिए बाध्य कर देते हैं और तथ्य पिछड़ने लगता है । तथ्यके अपलापकी यह खींचतान कहाँ समाप्त होगी, कह नहीं सकते। दूसरे, जैन समाजका आकार छोटा होनेके कारण इस कार्यको सम्पन्न करनेके लिए न तो उतने साधन ही उपलब्ध होते हैं और न उतनी उदार भूमिका ही अभी निष्पन्न हो सकी है। ये अड़चनें तो है ही। फिर भी अबतक जहाँ, जिसके द्वारा भी प्रयत्न हुए हैं उनकी हमें सराहना ही करनी चाहिए। ऐसे ही प्रयत्नोंका फल प्रस्तुत कृति है। इसके निर्माण करानेमें श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस व दूसरे महानुभावोंका जो भी सहयोग मिला है उसके लिए वे सब धन्यवादके पात्र हैं। ग० वर्णी जैन ग्रन्थमालाको यदि कुछ श्रेय है तो इतना ही कि उसने इसे मात्र प्रकाशमें ला दिया है। ___ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीके विषयमें हम क्या लिखें। इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि जैन समाजमें दर्शनशास्त्रके जो भी इने-गिने विद्वान् हैं उनमें ये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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