Book Title: Jain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan Author(s): Bhaktisheelashreeji Publisher: Sanskrit Prakrit Bhasha Bhasha VibhagPage 16
________________ प्रकरण :१ कर्मसिद्धांत के मूल ग्रंथ आगम वाङ्मय इस प्रकरण में मानव जीवन और धर्म, भारतीय संस्कृति, वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति, कालचक्र, तत्त्वदर्शन, आचार आदि का विवेचन करके जैन परंपरा के वर्तमान काल के अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रस्थापित द्वादशांग और तत् संबंधी अंग, उपांग, मूल, छेद आदि बत्तीस आगमों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। प्रकीर्णक, षटखण्डागम, धवला, कषायपाहुड, आचार्य कुंदकुंद के प्रमुख ग्रंथ पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि ग्रंथों के शोध कार्य की पृष्ठ भूमिका में प्रयुक्त किया है। सर्वप्रथम मानव जीवन का वर्णन किया है। कारण मनुष्य यह सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है। इस सर्वोत्कृष्टता का मूल आधार है। उसकी विचारशीलता और विवेकशीलता जो प्राणी का वैशिष्टय है। चैतन्य प्राणी के सहस्राधिक वर्ग में मानवजाति सर्व श्रेष्ठ है। हिताहित का विवेक मनुष्य में है। उसके साथ अन्य कोई भी प्राणी स्पर्धा नहीं कर सकता। . प्रेम, करुणा, दया, ममत्व, साहचार्य, संवेदना, क्षमा आदि असंख्य भाव मनुष्य के हृदय में निवास करते हैं। ऐसे भाव अन्य प्राणियों में दिखाई नहीं देते। चिंतन, मनन, विवेक निर्णय आदि की क्षमता का वरदान तो सिर्फ मानव को ही मिला है। यही विचारशीलता मनुष्य के श्रेष्ठत्व की आधारशिला है। मनुष्य मन का ईश्वर है, मन का स्वामी है। उसके उत्थान पतन का कारण उसके शुभाशुभ विचार हैं। अशुभ विचारों से उसका पतन होता है और शुभ विचारों से उसका उत्थान होता है। यही मनुष्य के मन का व्यक्त रूप है। विचार मनुष्य का निर्माण करनेवाला है। यही मानव जीवन के महल की मजबूत आधारशिला है। आगम ग्रंथ जैन साहित्य में जिनका असाधारण महत्त्व है। आगम ग्रंथ के अभ्यास से अष्टकर्म नष्ट होते हैं। आगम ग्रंथों का चिंतन, मनन करना यह सच्चा स्वाध्याय है। स्वं आत्मा, अध्याय-अभ्यास, निरीक्षण, परीक्षण करना, स्वयं की आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना स्वाध्याय है। वस्तु का स्वभाव धर्म है। 'वत्थु सहावो धम्मो' । दुर्गति में पड़ने वाले जीव को बचानेवाला धर्म है। मन पर विजय मिलाना धर्म है। पाँच इंद्रियों को वश करना धर्म है। व्रत नियम का पालन करना धर्म है। कषाय पर विजय मिलाना धर्म है। मोह ममत्व नष्ट करने से ही जीवन का अंतर बाह्य विकास होता है। मोह न छोडते हए सिर्फ धार्मिक क्रिया की, तो आत्मा का विकास नहीं होता, और संसार परिभ्रमण कम नहीं होता, इसलिए धर्म के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। प्रस्तुत प्रबंध में आत्मशुद्धि, आत्मविकास, आत्मावलोकनPage Navigation
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