Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज
किशनगढ़ जनवरी ११, १९८५
आशीवचन 'अहिंसा इण्टरनेशनल' के तत्त्वावधान में 'इण्टरनेशनल जैन कान्फ्रेन्स' के रूप में यह तीसरी कान्फन्स होने जा रही है। इससे पूर्व अमेरिका और लन्दन जैसे सुदूरवर्ती देशों में दो कान्फ्रेन्स हो चुकी हैं। एक परिपत्र के माध्यम से 'अहिंसा इण्टरनेशनल' के उद्देश्य ज्ञात हुए। उनमें अहिंसा प्रधान जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व में करुणा एवं वात्सल्य से आप्लावित भाई चारे की स्थापना भी एक प्रमुख लक्ष्य है। वस्तुनः करुणा एवं परस्पर मैत्री संयुक्त जनजीवन की स्थापना ही अहिंसा का प्रधान लक्ष्य है। मानव मात्र तक ही नहीं अपितु प्राणिमात्र तक के प्रति करुणा एवं मैत्री की उदात्त भावनाएं हमारे मन में जागृत हों यही अहिंसा प्रधान जैन धर्म का विश्व को उपदेश है।
जैन धर्म की अहिंसा का बहुत व्यापक अर्थ है और वह व्यक्ति के मन-वचन-कर्म एवं आहारविहार, आचरण आदि में व्याप्त है । ये सभी अहिंसामय होने चाहिएं।" अहिंसा के इस व्यापक एवं उदात्त अर्थ को समझते हुए प्राणीमात्र जैन धर्म को ग्रहण कर सकता है। जो लोग जैन धर्म को संकुचित विचार वाला मानते हैं वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। "अहिंसा" शब्द में निहित सम्पूर्ण धर्म को समझना एवं समझाना यही उद्देश्य उक्त संस्था का है, किन्तु यह समझना-समझाना आगम के परिप्रेक्ष्य में हो, मनोनुकूल न होकर यथार्थ के घरातल पर आधारित होना चाहिए ।
अहिंसा के साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे व्रतों को धारण कर प्रत्येक व्यक्ति व्यष्टि और समष्टि रुप जन जीवन को उन्नत बना सकता है। जैन धर्म ने सभी प्राणियों को अपनी योग्यता के अनुसार यथाशक्य व्रताचरण की आज्ञा प्रदान की है। अणुव्रत एवं अहिंसादि व्रतों का परिपालन जीवन में आवश्यक है।
हमारा यही आर्शीवाद है कि विश्वस्तरीय यह संस्था जिनागम के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ के धरातल पर जैन धर्म में प्रतिपादित तत्त्व दर्शन को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम हो तथा जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कर प्राणिमात्र को धर्म के प्रति जागरूक करे, इसी में स्वपर कल्याण निहित है। इसके साथ ही यह मंगल कामना करते हैं कि 'अहिंसा इण्टरनेशनल' के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के प्राणी अहिंसा को समझकर उसे धारण करते हुए अपने प्राचरण, आहार विहार आदि को मनसा-वाचा-कर्मणा से अहिंसामय बनावें एवं विश्व बन्धुत्व की धार्मिक रुप में स्थापना करें।
आचार्य धर्मसागर
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