Book Title: Indriya Gyan
Author(s): Sandhyaben, Nilamben
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है " मैं जाननहार हूँ, मैं करनार नहीं हूँ; जाननहार ही जानने में आता है, वास्तव में पर जानने में नहीं आता है।" पू. गुरुदेव श्री की कृपा से दृष्टि का विषय ख्याल में आने पर भी आत्मा का अनुभव क्यों नहीं होता, दृष्टि का विषय दृष्टि में क्यों नहीं आता ? उसका एकमात्र मूलकारण-इन्द्रियज्ञान में ज्ञान की भ्रांति रह जाती है! इन्द्रियज्ञान एकान्त परलक्षी है, बहिर्मुखी है, पर को जानने वाला है-उस इन्द्रियज्ञान में एकत्व बुद्धि होने के कारण ‘इन्द्रियज्ञान के द्वारा मैं पर को जानता हूँ'-ऐसी जिसकी मान्यता है उसका इन्द्रियज्ञान का व्यापार कभी बन्द नहीं होता। और इन्द्रियज्ञान का व्यापार बन्द हुये बिना उपयोग अंतर्मुख नहीं हो सकता और अंतर्मुखी उपयोग बिना आत्मदर्शन आत्मज्ञान नहीं हो सकता। इस प्रकार पू. श्री लालचंद्र भाई जी ने, “ मैं पर को नहीं जानता-मुझे तो जाननहार ही जानने में आता है” ऐसा बारम्बार सततपणे निशंकपने प्रतिपादन करके इन्द्रियज्ञान की एकत्व बुद्धि छुड़ाकर , अतीन्द्रिय आत्मज्ञान आत्मानुभव प्रकट करने की कोई अपूर्वअलौकिक विधि दर्शाई है। स्वानुभूति का मार्ग प्रशस्त किया है! अनादि काल से सब कुछ करने पर भी जो भूल रह गई (इन्द्रियज्ञान को ज्ञान मानने की) उस भूल का आप श्री ने मूल में से निराकरण कर दिया है। आपका यह अनिवर्चनीय उपकार अमाप है, अपार है। अति निकटभवी आत्मार्थियों को जैसे-जैसे यह भूल ख्याल में आती जायेगी वैसे-वैसे उनका हृदय आप श्री के अथाह उपकार से श्रद्धाभिभूत होकर नम्रीभूत हो जायेगा। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 300