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की सम्पादित सरह दोहाकोश की भूमिका तथा डॉ. बाबूराम सक्सेना का कीर्तिलता का हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादन एवं इसके द्वितीय संस्करण में भाषा वैज्ञानिक विवेचन भी इस क्षेत्र के प्रशंसनीय कार्य कहे जा सकते
हैं
__प्राकृत व्याकरणों के संपादित संस्करण एवं उनकी भूमिकाओं में डॉ० पिशेल का ग्रामेटिक डर प्राकृत स्पार्कन में प्राकृत व्याकरण पर विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है जिसका हिन्दी अनुवाद प्राकृतभाषाओं 'का व्याकरण, राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित किया गया जो अपभ्रंश भाषा पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है। डॉ० पिशेल के अतिरिक्त ग्रियर्सन, एल० नीति दोलचि, डॉ० पी० एल० वैद्य, भट्टनाथ स्वामी आदि का उन व्याकरणों के संपादित संस्करण विस्तृत भूमिकाओं के साथ प्रकाशित हुये हैं, इस संदर्भ में डा० चाटुा की उक्तिव्यक्ति प्रकरण की भूमिका भी अत्यन्त उपादेय कही जा सकती है।
विविध भाषा वैज्ञानिकों ने भाषाओं के अध्ययन के प्रसंग में अपभ्रंश पर भी दृष्टिपात किया है जिनमें मुख्य रूप से डॉ० सुनीति कुमार चाटुा का द ओरिजिन एण्ड डेवलपमैन्ट आव द बंगाली लैंग्वेज डा० बाबूराम सक्सेना का इवोल्यूशन आव अवधी, डा० जार्ज ग्रियर्सन का लिंग्विस्टिक सर्वे आव इण्डिया तथा डा० धीरेन्द्र वर्मा का हिन्दी भाषा का इतिहास आदि कार्य भी उपयोगी कहे जा सकते हैं। इसी क्रम में टर्नर, व्लाख, याकोबी, एवं महन्दाले इत्यादि के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
__ अपभ्रंश सम्बन्धी उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश पर मुख्यतया हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों को आधार मानकर स्वतन्त्र एवं साक्षात रूप से प्रकाश डालने वाले पुस्तकों का अभाव है तथा हिन्दी में तो विशुद्ध रूप से अपभ्रंश भाषा और व्याकरण पर कोई विशेष उल्लेख्य ग्रन्थ देखने को नहीं मिला। डॉ० नामवर सिंह का हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, डॉ० भोला शंकर व्यास का प्राकृत पैंगलम् का भाषा शास्त्रीय और छन्दः शास्त्रीय अध्ययन अपभ्रंश पर विचार अभिव्यक्त करते हैं किन्तु डॉ० नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक में भाषा तथा साहित्य की दृष्टि से अपभ्रंश का मात्र परिचयात्मक ज्ञान करवाया है। डॉ० भोलाशंकर