Book Title: Gyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 3
________________ में ही उस ज्ञान को पाता है यानी साक्षात् किया करता है। इसके पूर्व 36वां और 37वां श्लोक में उन्होंने बतलाया है कि यदि त पाप करने वाला सब पापियों से अधिक पाप करने वाला अति पापी भी है तो भी ज्ञान रूपी नौका द्वारा अर्थात् ज्ञान को ही नौका बनाकर समस्त पापरूप समुद्र से अच्छी तरह से पार उतर जाएगा। यहां मुमुक्षु के लिए धर्म भी पाप ही कहा जाता है। फिर कहते हैं, जैसे अच्छी प्रकार से प्रदीप्त यानी प्रज्वलित हुआ अग्नि ईंधन को अर्थात् काष्ठ के समूह को भस्म कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि सब कर्मों को भस्मरूप कर देता है अर्थात् निर्बीज कर देता है। यानी यथार्थ ज्ञान सब कर्मों को निर्बीज करने का हेतु है। अतः ज्ञान की श्रेष्ठता स्वत: सिद्ध हो जाती है। वस्तुतः सद्कर्म अथवा दुष्कर्म का बोध हो तो ज्ञान है और ज्ञानी दुष्कर्म करे ही क्यों? चूंकि ज्ञानी के जीवन में विषमता एवं संघर्ष का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है, जैसे अगस्त्य वाल्मीकि एवं जनक (इन्हें विदेह भी कहा जाता है)। इन्होंने ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी लोक संग्रह अथवा लोककल्याण के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे हैं। इनकी दृष्टि में दर्शन जीवन और जगत् से सम्बन्धित होता है इसीलिए एच.एम. भट्टाचार्य ने लिखा है कि "Philosophy...as apprication of life and universe."* भारतीय दर्शन की उत्पत्ति आध्यात्मिक जीवन की जरूरतों की पूर्ति के लिये हुई है। एच.एम. भट्टाचार्य के शब्दों में "So in India philosophy arose from the deeper needs of spiritual life.'s 379 viel da alloch ज्ञान एवं अलौकिक ज्ञान के औचित्य का प्रश्न है, इस संबंध में यहां इतना बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए लौकिक ज्ञान की अनिवार्यता है किन्तु पारमार्थिक सत्ता को जानने के लिए अलौकिक ज्ञान की अनिवार्यता है। यूनानी दार्शनिक सुकरात और प्लेटो (Plato) ने भी सद्गुण को ही ज्ञान माना है। इनकी दृष्टि में ज्ञानी गलती नहीं करता है। इसीलिये कहा गया है-"Indian mind has viewed philosophy not as mere intellectual gymnastics but rather as a means to spiritual salvation." चार्वाक अथवा लोकायत दर्शन की मान्यता है कि लौकिक जीवन ही यथार्थ है और इसीलिए लौकिक ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है और अलौकिक ज्ञान की बात ब्राह्मणों का षड्यंत्र मात्र है किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है, फिर भी लौकिक जीवन को ध्यान में रखते हुए चार्वाक की ज्ञानमीमांसा की चर्चा सर्वप्रथम आवश्यक प्रतीत होती है तत्पश्चात् अन्य भारतीय दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत ज्ञानमीमांसीय विचारों को देखेंगे, फिर पाश्चात्य ज्ञान मीमांसा में अनुभववाद, बुद्धिवाद एवं समीक्षावाद की विवेचना की जाएगी। अतः अब लोकायत दर्शन के अनुसार प्रमा (यथार्थ ज्ञान) और अप्रमा (अयथार्थ ज्ञान) के लिए प्रमाणों की विवेचना करनी जरूरी है और चार्वाक कीPage Navigation
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