Book Title: Gyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 2
________________ योग वाशिष्ठ दर्शन इस ग्रंथ का आरम्भ एक आख्यान से होता है। कोई ब्राह्मण महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुंचा और उसने प्रश्न किया कि ज्ञान अथवा कर्म में से मोक्ष साधन का प्रत्यक्ष कारण क्या है? अगस्त्य ने उत्तर दिया कि जिस प्रकार पक्षी अपने दो पंखों के सहारे उड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य केवल ज्ञान और कर्म के द्वारा ही 'परमपद' को प्राप्त कर सकता है। अगस्त्य एक ऋषि थे, जिन्होंने ऋग्वेद की कई ऋचाओं की रचना की थी।' उर्वशी के सौन्दर्य को देखकर मित्र और वरुण के स्खलन से इनकी और वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई थी। भाष्यकार सायण के अनुसार इनकी उत्पत्ति पेड़ से हुई थी। इसीलिए इन्हें कुम्भज, कलसीसुत, कुर्भसम्भव और घटोद्भव आदि भी कहा जाता है। महाभारत में अगस्त्य की पत्नी के सम्बन्ध में एक कथा आयी है। वस्तुत वे विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु उन्होंने देखा कि उनके पितृव्य पुरुष एक गर्भ में अधोमुख लटक रहे हैं। अगस्त्य ने कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी सद्गति अगस्त्य के वंशोत्पन्न से ही संभव है। इससे अगस्त्य ने इच्छा से एक सुन्दरी को उत्पन्न किया और उसे पुत्र कामना से तपस्या करने वाले विदर्भ राजा को समर्पित कर दिया और उन्होंने एक कन्या को उत्पन्न किया। इसी लोपामुद्रा नामक स्त्री से अगस्त्य ने अपना विवाह किया, जिससे उनके इदमवाहु मतान्तर से कवि दृढस्यु का जन्म हुआ और शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करने के तत्पश्चात् सद्कर्मों के सहारे यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति की है और उससे अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है। अब प्रश्न है कि ज्ञान क्या है? ज्ञान की यथार्थता एवं उसके स्वरूप सम्बन्धी अवधारणा को व्यक्त करते हुए एच.एम. भट्टाचार्य ने ठीक ही लिखा है कि "Now the science which investigates into the nature and conditions of correct knowledge is known as Epistemology." गर्भ में अधोमुख लटक चाहते थे किन्तु उन्हासम्बन्ध में एक कथा अ. जीव में ज्ञान ज्ञान को सर्वोच्च माना गया है। ज्ञान के कारण ही ब्राह्मणों को समाज में सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। महाभारत में बतलाया गया है कि वेद-ज्ञान से शून्य और शास्त्र-ज्ञान से रहित ब्राह्मण काष्ठहस्ती या अचर्म भृग या पुरुषत्वहीन अथवा पंखहीन पक्षी या अग्निहीन ग्राम अथवा जलरहित कुएं के सदृश माना जाता था। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ज्ञान की श्रेष्ठता को दर्शाते हुए बतलाया गया है कि "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विदन्ति।" (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-4, श्लोक-38वां) अर्थात् इस पृथ्वी पर ज्ञान से बड़ा कोई पवित्र कर्ता नहीं है। जगत गुरु शंकराचार्य ने भी बतलाया है कि "ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, शुद्ध करने वाला इस लोक में (दूसरा कोई नहीं है। कर्मयोग या समाधियोग द्वारा बहुत काल में भली प्रकार शुद्धान्तःकरण हुआ अर्थात् वैसी योग्यता को प्राप्त हुआ मुमुक्षु स्वयं अपनी आत्माPage Navigation
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