Book Title: Gwalior ke Sanskrutik Vikas me Jain Dham
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ सन् थी, बल्कि भारत के बाहर भी वे फैले हुए थे ।"" 648 में हर्ष की मृत्यु हो गई और पुनः एक बार इस क्षेत्र में अराजकता जैसी स्थित निर्मित हो गई । ग्वालियर के दो शैलोत्कीर्ण शिल्पांकन भी इसी काल के अंत की ही रचनाएँ प्रतीत होती । इनमें से एक प्रतिमा में तीर्थंकर को कायोत्सर्ग मुद्रा में तथा दूसरी को पद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा में अंकित किया गया है। पद्मासन मुद्राबाले तीर्थ कर के पार्श्व में अंकित सेवक पूर्ण विकसित कमल पुष्पों पर खड़े हुए हैं। इन कमल पुष्पों को बौने (वामन) लोगों ने थाम रखा है, जो स्वयं मोटे कमलनाल जैसे दिखाई देते हैं । ऐसा ही लम्बी तालयुक्त कमल पुष्पों पर खड़े यक्षों का अंकन मथुरा संग्रहालय की ( बी 6 तथा बी 7 क्रमांकित ) दो सुन्दर मूर्तियों में भी पाया जाता । खड्गासन तीर्थं कर प्रतिमा के मूर्तन की तुलना राजगिरि की वैभार पहाड़ी स्थित दो खड्गासन प्रतिमाओं के मूर्तन से की जा सकती है। ग्वालियर की इन दोनों तीर्थं कर प्रतिमाओं में गुप्त-शैली का अनुकरण किया गया है। सेवक अलंकृत टोपी जैसे मुकुट तथा गले में एकावली धारण किये हुए हैं। तीर्थंकरों का परिकर परवर्ती गुप्तकालीन प्रतिमाओं की भाँति सुसज्जित न होकर यहाँ भी सादा रहा । " आठवीं शती के सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से से इस बात की पुष्टि होती है कि आठवीं शती में गोपाचल क्षेत्र में जैन धर्म का क्रमबद्ध विकास प्रारम्भ हो गया था । कन्नौज के प्रतापी यशोवर्मन के पुत्र आम ने गोपाचल गढ़ को सन् 750 ई. में अपनी राजधानी बनाया था । आम ने वप्पभट्ट सूरि का शिष्यत्व ग्रहण किया था। जैन प्रबन्धों के अनुसार आम नामक नरेश ने जो नौ वीं शताब्दी में कन्नौज और ग्वालियर पर शासन करता था कन्नौज में एक मन्दिर का निर्माण कराया था, जो 100 हाथ ऊँचा था और जिसमें उसने तीर्थंकर महावीर की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करायी थी। उसने ग्वालियर में 23 हाथ ऊँची महावीर की प्रतिमा स्थापित की थी । यह भी कहा जाता है कि उसने मथुरा, अनहिल वाड़, मोढ़ेरा आदि में भी जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था । " जैन परम्पराओं में उल्लिखित नरेश आम प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय (मृत्यु 883 ई.) रहे होंगे, जो जैन धर्म के प्रति अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। इस जैन परम्परा की सत्यता इन स्थानों से प्राप्त मध्यकालीन जैन अवशेषों द्वारा प्रमाणित होती है । ग्वालियर के किले में अंबिका यक्षी और गोमेद यक्ष की शैलोत्कीर्ण सपरिकर प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं । ललितासन में बैठी अंबिका के पार्श्व में, उनकी सेबिकाऐं हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माणकाल लगभग आठवीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ भारी आकार और रचना सौष्ठव के लिये विशेष उल्लेखनीय हैं, तथा कुषाण एवं गुप्तकालीन पांचिक 2. ट्रेवेल्स आफ हुएनसांग, पृष्ठ 2241 3. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1; भाग 3 ( वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला ) ( 300 से 600 ई.), अध्याय 12 ( मध्यभारत ) - डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह | Jain Education International 4. प्रबन्ध कोष, पृष्ठ 27; प्रभावक चरित, पृष्ठ 99 1 5. मजूमदार (आर. सी.) तथा पुसालकर (ए. डी.) सम्पादक -एज आफ इम्पीरियल कन्नोज, 1955, बम्बई, पृष्ठ 289 1 6. ब्रून (क्लास) जिन इमेजेज आफ देवगढ़, 1969, लीडन, चित्र 18-18 A । ३३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24