Book Title: Gwalior ke Sanskrutik Vikas me Jain Dham
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 2
________________ राज्य का क्षेत्र बढ़ाने, अपनी विचारधारा का प्रचार प्रमाण सूर्यकुण्ड पर स्थित हूण और मिहिरकुल के करने आदि में व्यतीत करते थे । तथापि सभी के विषय एक शिलालेख द्वारा प्राप्त होता है। जिसका काल लगमें ऐसा नहीं कहा जा सकता । अनेकों राजाओं ने इन भग 515 ई. माना जात है। इस काल के बारे में विशेष सबके अतिरिक्त कला एवं साहित्य के विकास तथा विवरण नहीं मिलता। इस कारण जैनों की स्थिति के स्थापत्य पर भी ध्यान दिया। अधिकतर निर्माण कार्य बारे में कुछ निश्चित मत व्यक्त नहीं किये जा सकते । मंदिरों और महलों के ही रूप में कराये गये। आगे पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस चलकर शिलालेख खुदवाने की परम्परा भी पाई जाती नगर निर्माण के काल से ही शनैः-शनैः जैन धर्माहै। लेकिन जहाँ तक लेखन का प्रश्न है प्राचीन समय में वलम्बी इस नगर में आकर बसने लगे थे। धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बहत कम ही लिखा गया। इस समय ग्वालियर पर तोरमन और उसके पुत्र यदि थोड़ा-बहुत लिखा भी गया है तो वह राजाओं की मिहिरकुल का आधिपत्य था। इनका शासन काल प्रशंसा आदि के सम्बन्ध में है। हाँ विदेशों से आये बड़ा दुखदायी रहा। सन् 533 ई. में यशोवर्मन द्वारा विभिन्न दूतों द्वारा लिखा गया वर्णन अवश्य अनेकों पराजित किये जाने पर वह काश्मीर भाग गया पर ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करता है। इस प्रकार स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। यशोवर्मन और उसके हम देखते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास लिखने की पुत्र नागवर्मन ने सन् 550 ई. तक यहां राज्य किया। इस परम्परा नहीं थी। अन्य जो कुछ लिखा भी गया, वह प्रकार इन 80 वर्षों में राज्य की दशा बड़ी ही अस्थिर सुरक्षित नहीं है । हाँ शिलालेख और धर्मग्रन्थ अवश्य रही। इसके पश्चात् हर्ष के सम्राट होने पर उसने थोड़ा-बहुत प्रकाश डालते हैं। ग्वालियर पर भी कब्जा कर उसे अपने राज्य में मिला अनेकों प्राचीन ऐतिहासिक नगरों पद्मावती तथा लिया। इसके राज्य में शान्ति रही, यद्यपि वह स्वयं बौद्ध सिहोनियां आदि से मिलकर बना यह भाग भारत के मतावलम्बी था परन्तु वह धर्मान्ध नहीं था । अतः इसने इतिहास में अपना अत्याधिक महत्व रखता है. परन्त सभी वर्गों को समान रूप से प्रगति के अवसर प्रदान इसके सम्बन्ध में भी यही दशा है। यहाँ के बहुत से किये। इसके कारण उसके काल में यहाँ जैन पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य और ग्रन्थ नष्ट हो गए हैं और जो हैं मात्रा में थे और इस क्षेत्र में तभी से क्रियाशील भी उन पर पर्याप्त शोध न होने के कारण कुछ सीमित हो उठे थे। वे धर्म प्रचार और साधना के अतिरिक्त जानकारी के सहारे तथा अन्य स्थानों पर कल्पना शक्ति अब संगठन, तथा मंदिरों के निर्माण पर भी ध्यान देने के ही सहारे आगे बढ़ना पड़ता है। फिर भी प्राचीन ग्रन्थों लगे थे। आदि से इस क्षेत्र के ऐतिहासिक दष्टि से धनवान होने के उदाहरण मिलते हैं । अनेकों प्राचीन ग्रन्थों में प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग इन्हीं के राज्यकाल पद्मावती, सिहोनिया, गोपाद्री, गोपागिरी और गोपाचल में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक में एक स्थान आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है। पर जैन साधुओं की चर्चा करते हुए लिखा है-- "निर्ग्रन्थ साधू अपने शरीर को नग्न रखते हैं और वैसे इस दुर्ग के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ऐतिहासिक बालों को नोच डालते हैं । उनकी प्रधानता सारे देश में 1. आ. स. ई. रिपोर्ट, भाग 2, पृष्ठ 339 तथा भाग 20, पृष्ठ 107 । ३३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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