Book Title: Gwalior ke Sanskrutik Vikas me Jain Dham
Author(s): Ravindra Malav
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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उनके अतिरिक्त ज्ञानार्णव, चन्द्रप्रभु चरित्र तथा परिमाल कवि आगरा द्वारा श्रीपाल चरित्र आदि लिखे गये। सं. 1497 और सं. 1510 में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख उपलब्ध हैं।
शाह टोडरमल जी, दोल जी काशलीवाल भी उनके काल में ही मारवाड़ से ग्वालियर आये थे । उस समय तोमर व कछवाय जैन मत पालते थे। उन्होंने पहाड़ी पर गुफा व जैन मन्दिर के निर्माण भी कराये ।
वे जैनधर्म से बड़ा प्रभावित थे । तत्कालीन म. गुणकीति के प्रति इसके हृदय में असीम श्रद्धा थी । उनके उपदेशामृत से इसने जैन धर्म स्वीकार किया। इस काल में गुणकीर्ति उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों का भी जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में
इन मूर्तियों का निर्माण मूर्तिकला के क्षेत्र में इस प्रदेश के कारीगरों का अभिनव प्रयास था जिसके अन्तर्गत वि. सं. 1530 तक के 33 वर्ष के थोड़े समय
सर्वाधिक योगदान रहा । इसके काल में अनेकों मूर्तियों में ही दुर्ग की ये बेडोल और मूक चट्ट ने विशालता, का निर्माण हुआ तथा प्रतिष्ठायें करवाई गई। इसके काल में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी इसने कुल 30 वर्ष । तक ग्वालियर पर शासन किया ।
वीतरागिता, शान्ति, एवं तपस्या की भाव व्यंजना से मुखरित हो उठीं । गढ़ के चारों ओर खुदी हुई इन विशाल मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन मूर्तियों के निर्माणकर्ता अपनी श्रद्धा और भक्ति के अनुकूल विशाल प्रतिमाओं का निर्माण करना अथवा कराना चाहते होंगे। अतः इससे प्रेरित होकर उत्की faों ने निर्माणक की निर्मल भावनाओं को साकार रूप प्रदान करने के उद्देश्य से उस विशालता में सौन्दर्य का और समावेश कर कला की अपूर्व कृतियों का निर्माण किया । प्रतिमाओं के ये समूह दुर्ग के विभिन्न अंचलों में बने हैं जो गुहा मन्दिरों के नाम से जाने जाते हैं । ये असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर संख्या और आकार की दृष्टि से उत्तर भारत में अद्वितीय हैं। मूर्तिकला और मन्दिर स्थापत्य दोनों में अद्भुत सामंजस्य स्थापित है । सबसे
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इसके पश्चात् कीर्तिसिंह या कीर्तिपाल गद्दी पर बैठा । यह डूंगरसिंह का पुत्र था । यह अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था 132 यह पराक्रमी होने के साथ-साथ दयालु, सहृदय और प्रजा वत्सल भी था। इसने लगभग सन् 1924 में शासन भार ग्रहण किया ।
इसने अपने राज्य को और भी बढ़ाया। इसके समय के दो लेख 1468 और 1473 ई. के मिले हैं। इसकी मृत्यु सन् 1479 में हुई थी अतः इसका राज्यकाल 1479 तक माना जाता है ।
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यह जैन धर्म में अत्याधिक आस्था रखता था । इसने अपने पिता द्वारा अधूरे छोड़े गये मूर्तियों के उत्खनन के कार्य को पूरा कराया। इसका काल सं. 1522 से 1531 तक मिलता है। इस काल में अनेकों नई मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हुई जिनमें अकित लेखों में कीर्तिसिंह का उल्लेख मिलता है । उदाहरणार्थ - बाबा की बावड़ी के दाहिनी ओर बनी पार्श्वनाथ की मूर्ति पर लिखे अभिलेख में महाराजा कीर्तिसिंह का विवरण दिया है। इस खड़गासन मूर्ति के निकट ही नौ अन्य मूर्तियाँ भी खुदी हैं जिनमें कुछ पदमासन भी हैं। इनके मुख खंडित कर दिये गये हैं।
29. देखो जनरल एशियाटिक सोसाइटी भाग 31, पु. 423 गोपाचल दुर्गे तोमरवंशे राजा श्री गणपति देवास्त पुत्रों महाराजाधिराज श्री डूंगरसिंह राज्ये (प्रतिष्ठितं ) चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख । कवि रईधू - श्रीपाल चरित्र
समयसार लिपि, प्र० शास्त्र भन्डार, कारंजा ।
30. 31.
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