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ग्वालियर
सांस्कृतिक विकास
जैन धर्म
-रवीन्द्र मालव
भारत के हृदय-स्थल पर स्थित देश के इस भाग का इतिहास अत्याधिक प्राचीन है। यद्यपि विभिन्न इतिहासकारों ने समय-समय पर प्रकाशित अपने ऐतिहासिक लेखों एवं पुस्तकों में इस क्षेत्र की प्राचीनता के सम्बन्ध में लिखा है तथापि यहाँ के इतिहास के सम्बन्ध में पर्याप्त शोध न होने के कारण अनेकों ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में नहीं आ पाये हैं। इसी कारण अनेकों स्थानों पर इसके अभाव में इतिहासकारों एवं लेखकों को कल्पनाशक्ति का सहारा लेने को विवश होना पड़ा है।
यों तो सारे भारत में ही इतिहास विषय पर पर्याप्त शोध-कार्य नहीं हआ है और न ही विशेष लिखा ही गया है, परन्तु ग्वालियर के सम्बन्ध में यह बात विशेष रूप से कही जा सकती है। यही कारण है कि यहाँ के प्राचीन इतिहास का अधिकांश भाग अन्धकारमय है। सच पूछा जाये तो इसका प्रमुख कारण हमारी संस्कृति ही रही। प्रारम्भ में इस देश में इतिहास लिखने की परम्परा नहीं थी। शासकगण अपना अधिकतर समय
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राज्य का क्षेत्र बढ़ाने, अपनी विचारधारा का प्रचार प्रमाण सूर्यकुण्ड पर स्थित हूण और मिहिरकुल के करने आदि में व्यतीत करते थे । तथापि सभी के विषय एक शिलालेख द्वारा प्राप्त होता है। जिसका काल लगमें ऐसा नहीं कहा जा सकता । अनेकों राजाओं ने इन भग 515 ई. माना जात है। इस काल के बारे में विशेष सबके अतिरिक्त कला एवं साहित्य के विकास तथा विवरण नहीं मिलता। इस कारण जैनों की स्थिति के स्थापत्य पर भी ध्यान दिया। अधिकतर निर्माण कार्य बारे में कुछ निश्चित मत व्यक्त नहीं किये जा सकते । मंदिरों और महलों के ही रूप में कराये गये। आगे पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस चलकर शिलालेख खुदवाने की परम्परा भी पाई जाती नगर निर्माण के काल से ही शनैः-शनैः जैन धर्माहै। लेकिन जहाँ तक लेखन का प्रश्न है प्राचीन समय में वलम्बी इस नगर में आकर बसने लगे थे। धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बहत कम ही लिखा गया।
इस समय ग्वालियर पर तोरमन और उसके पुत्र यदि थोड़ा-बहुत लिखा भी गया है तो वह राजाओं की
मिहिरकुल का आधिपत्य था। इनका शासन काल प्रशंसा आदि के सम्बन्ध में है। हाँ विदेशों से आये
बड़ा दुखदायी रहा। सन् 533 ई. में यशोवर्मन द्वारा विभिन्न दूतों द्वारा लिखा गया वर्णन अवश्य अनेकों
पराजित किये जाने पर वह काश्मीर भाग गया पर ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करता है। इस प्रकार
स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। यशोवर्मन और उसके हम देखते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास लिखने की
पुत्र नागवर्मन ने सन् 550 ई. तक यहां राज्य किया। इस परम्परा नहीं थी। अन्य जो कुछ लिखा भी गया, वह
प्रकार इन 80 वर्षों में राज्य की दशा बड़ी ही अस्थिर सुरक्षित नहीं है । हाँ शिलालेख और धर्मग्रन्थ अवश्य
रही। इसके पश्चात् हर्ष के सम्राट होने पर उसने थोड़ा-बहुत प्रकाश डालते हैं।
ग्वालियर पर भी कब्जा कर उसे अपने राज्य में मिला अनेकों प्राचीन ऐतिहासिक नगरों पद्मावती तथा लिया। इसके राज्य में शान्ति रही, यद्यपि वह स्वयं बौद्ध सिहोनियां आदि से मिलकर बना यह भाग भारत के मतावलम्बी था परन्तु वह धर्मान्ध नहीं था । अतः इसने इतिहास में अपना अत्याधिक महत्व रखता है. परन्त सभी वर्गों को समान रूप से प्रगति के अवसर प्रदान इसके सम्बन्ध में भी यही दशा है। यहाँ के बहुत से किये। इसके कारण उसके काल में यहाँ जैन पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य और ग्रन्थ नष्ट हो गए हैं और जो हैं मात्रा में थे और इस क्षेत्र में तभी से क्रियाशील भी उन पर पर्याप्त शोध न होने के कारण कुछ सीमित हो उठे थे। वे धर्म प्रचार और साधना के अतिरिक्त जानकारी के सहारे तथा अन्य स्थानों पर कल्पना शक्ति अब संगठन, तथा मंदिरों के निर्माण पर भी ध्यान देने के ही सहारे आगे बढ़ना पड़ता है। फिर भी प्राचीन ग्रन्थों लगे थे। आदि से इस क्षेत्र के ऐतिहासिक दष्टि से धनवान होने के उदाहरण मिलते हैं । अनेकों प्राचीन ग्रन्थों में
प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग इन्हीं के राज्यकाल पद्मावती, सिहोनिया, गोपाद्री, गोपागिरी और गोपाचल
में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक में एक स्थान आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है।
पर जैन साधुओं की चर्चा करते हुए लिखा है--
"निर्ग्रन्थ साधू अपने शरीर को नग्न रखते हैं और वैसे इस दुर्ग के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ऐतिहासिक बालों को नोच डालते हैं । उनकी प्रधानता सारे देश में
1. आ. स. ई. रिपोर्ट, भाग 2, पृष्ठ 339 तथा भाग 20, पृष्ठ 107 ।
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सन्
थी, बल्कि भारत के बाहर भी वे फैले हुए थे ।"" 648 में हर्ष की मृत्यु हो गई और पुनः एक बार इस क्षेत्र में अराजकता जैसी स्थित निर्मित हो गई ।
ग्वालियर के दो शैलोत्कीर्ण शिल्पांकन भी इसी काल के अंत की ही रचनाएँ प्रतीत होती । इनमें से एक प्रतिमा में तीर्थंकर को कायोत्सर्ग मुद्रा में तथा दूसरी को पद्मासनस्थ ध्यानमुद्रा में अंकित किया गया है। पद्मासन मुद्राबाले तीर्थ कर के पार्श्व में अंकित सेवक पूर्ण विकसित कमल पुष्पों पर खड़े हुए हैं। इन कमल पुष्पों को बौने (वामन) लोगों ने थाम रखा है, जो स्वयं मोटे कमलनाल जैसे दिखाई देते हैं । ऐसा ही लम्बी तालयुक्त कमल पुष्पों पर खड़े यक्षों का अंकन मथुरा संग्रहालय की ( बी 6 तथा बी 7 क्रमांकित ) दो सुन्दर मूर्तियों में भी पाया जाता
। खड्गासन तीर्थं कर प्रतिमा के मूर्तन की तुलना राजगिरि की वैभार पहाड़ी स्थित दो खड्गासन प्रतिमाओं के मूर्तन से की जा सकती है। ग्वालियर की इन दोनों तीर्थं कर प्रतिमाओं में गुप्त-शैली का अनुकरण किया गया है। सेवक अलंकृत टोपी जैसे मुकुट तथा गले में एकावली धारण किये हुए हैं। तीर्थंकरों का परिकर परवर्ती गुप्तकालीन प्रतिमाओं की भाँति सुसज्जित न होकर यहाँ भी सादा रहा । "
आठवीं शती के सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से से इस बात की पुष्टि होती है कि आठवीं
शती में गोपाचल क्षेत्र में जैन धर्म का क्रमबद्ध विकास प्रारम्भ हो गया था । कन्नौज के प्रतापी यशोवर्मन के पुत्र आम ने गोपाचल गढ़ को सन् 750 ई. में अपनी राजधानी बनाया था । आम ने वप्पभट्ट सूरि का शिष्यत्व ग्रहण किया था। जैन प्रबन्धों के अनुसार आम नामक नरेश ने जो नौ वीं शताब्दी में कन्नौज और ग्वालियर पर शासन करता था कन्नौज में एक मन्दिर का निर्माण कराया था, जो 100 हाथ ऊँचा था और जिसमें उसने तीर्थंकर महावीर की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित करायी थी। उसने ग्वालियर में 23 हाथ ऊँची महावीर की प्रतिमा स्थापित की थी । यह भी कहा जाता है कि उसने मथुरा, अनहिल वाड़, मोढ़ेरा आदि में भी जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था । " जैन परम्पराओं में उल्लिखित नरेश आम प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय (मृत्यु 883 ई.) रहे होंगे, जो जैन धर्म के प्रति अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। इस जैन परम्परा की सत्यता इन स्थानों से प्राप्त मध्यकालीन जैन अवशेषों द्वारा प्रमाणित होती है ।
ग्वालियर के किले में अंबिका यक्षी और गोमेद यक्ष की शैलोत्कीर्ण सपरिकर प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं । ललितासन में बैठी अंबिका के पार्श्व में, उनकी सेबिकाऐं हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माणकाल लगभग आठवीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है। ये प्रतिमाएँ भारी आकार और रचना सौष्ठव के लिये विशेष उल्लेखनीय हैं, तथा कुषाण एवं गुप्तकालीन पांचिक
2. ट्रेवेल्स आफ हुएनसांग, पृष्ठ 2241
3.
जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1; भाग 3 ( वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला ) ( 300 से 600 ई.), अध्याय
12 ( मध्यभारत ) - डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह |
4.
प्रबन्ध कोष, पृष्ठ 27; प्रभावक चरित, पृष्ठ 99 1
5. मजूमदार (आर. सी.) तथा पुसालकर (ए. डी.) सम्पादक -एज आफ इम्पीरियल कन्नोज, 1955,
बम्बई, पृष्ठ 289 1
6.
ब्रून (क्लास) जिन इमेजेज आफ देवगढ़, 1969, लीडन, चित्र 18-18 A ।
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एवं हारीति प्रतिमाओं के समनुरूप हैं। अंबिका यक्षी की प्रतिष्ठा कर उसे वहां स्थापित कराया। इससे की मुखाकृति अण्डाकार है, नेत्र अद्ध निमीलित लगता है कि भोजदेव के काल में जैन धर्मावलंबियों की हैं, केश सज्जा घम्मिल्ल आकार का है, कसे हुए गोल अच्छी दशा थी। इन्होंने 10 वी. शताब्दी तक शासन स्तन हैं, ग्रीवा और कुक्षी पर त्रिवलियाँ हैं, उदर भरा किया। दसवीं शताब्दी में पुनः वरजुमन कछवाहा के हुआ तथा नितम्ब चौड़े हैं । यक्ष की प्रतिमा स्थलकाय नेतृत्व में राजपूतों ने इस क्षेत्र तथा दुर्ग पर अपना
और लम्बी-चौड़ी है। उसकी तोंद मटके जैसी है। शासन स्थापित किया। ग्वालियर के किले में तीन स्वतन्त्र जैन प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं जो लगभग उसी काल की हैं। इनमें से वर्तमान सास-बहू के मन्दिरों का भी निर्माण इसी एक प्रतिमा कायोत्सर्ग मद्रा में आदिनाथ का अंकन है काल में हमा। इस मन्दिर के लम्बे शिलालेख का पाठ जिसके चारों ओर पदमासन मुद्रा में तेईस तीर्थ कर दिगम्बर यशोदेव द्वारा रचित है। इससे प्रकट होता है अंकित हैं। इस प्रकार यह प्रतिमा एक चतुर्विंशति-पट कि महीपाल कच्छपघात के समय में भी ग्वालियर में के रूप में है। दूसरी प्रतिमा में नन्दीश्वर द्वीप सहित जैन सम्प्रदाय की पूर्ण प्रतिष्ठा थी। ऐसा माना जाता तीर्थ कर आदिनाथ अंकित हैं। तीसरी प्रतिमा कायो• है कि 105 फुट लम्बा, 75 फुट चौड़ा और 100 सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की है। उनके शीर्ष पर नागफण फुट ऊँचा यह मन्दिर महीपाल नामक राजपूत शासक का छत्र अंकित है तथा सून्दर अद्ध मानवाकृति नागों द्वारा नन्दीश्वर द्वीप अष्टानिका के व्रत के उपलक्ष में द्वारा तीर्थकर का जलाभिषेक करते दिखाया गया है। जिनमान्दर क
है। जिनमन्दिर के रूप में वनवाया गया। यही कारण है नागों के सिर पर लहरिया केश सज्जा है। इस कि उसमें देव-देवांगनाओं की नृत्य तथा अन्य मुद्राओं प्रकार आठवीं-नवीं शताब्दी में ग्वालियर में जैन धर्म में मूर्तियाँ खुदी हैं । इसकी प्रतिष्ठा में पद्मनाम का काफी प्रभाव था और इसी कारण जैन शिल्पांकन क्षुल्लक आदि ने भी भाग लिया था। यह लगभग की दिशा में भी इस काल में बहुत कार्य हुआ।
सन् 1036 में बनकर पूर्ण हुआ। इसके द्वारों, छत
और दीवारों की खुदाई दर्शनीय है। यह सास-बह के कन्नौज के परिहार राजा भोजदेव ने भी कुछ समय मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में कुछ इतिके लिये इस दुर्ग पर अपना शासन स्थापित किया हासकारों ने इसका प्राचीन नाम सहस्त्रबाहु का मन्दिर जिसका प्रमाण हमें किले के नीचे सागर ताल पर स्थित बताते हुये इसे विष्णु मन्दिर भी कहा है। सन 875 तथा सन 876 के चतुर्भुज मन्दिर के शिलालेखों से प्राप्त होता है। इनके शासन काल में भारत सरकार द्वारा सन् 1869 में ग्वालियर भी श्री वच्चदान नामक जैन साघ द्वारा सं. 1034 दुर्ग में कुछ ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के उत्खनन् के (सन् 977) में बैशाख वदी पंचमी के दिन जैन मूर्ति अवसर पर प्राप्त, एक ताम्र चैत्य तथा चार तीर्थ करों
7. जैन कला एवं स्थापत्य, खण्ड 1, भारतीय ज्ञानपीठ, भाग 4, वास्तु स्मारक एवं मूर्तिकला (600 से
1000 ई.) अध्याय 16, मध्यभारत, कृष्णदेव, पृष्ठ 177-78 । 8. मेईस्तर (माइकेल डब्ल्यू); आम, अम्रोल एण्ड जैनिज्म इन ग्वालियर फोर्ट, जर्नल आफ दि ओरियन्टल
इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, 22; 354-58। 9. ग्वालियर का अतीत, पृष्ठ 141
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की ताम्र प्रतिमाएँ प्रस्तुत की गई हैं। ये चैत्य एवं यह प्रतिमा जैन कास्मोलॉजी के अनुसार वणित तीर्थकर प्रतिमाएं 10-11 वीं सदी के लगभग किसी द्वीपों में से एक द्वीप नन्दीश्वर द्वीप की प्रतीक स्वरूप समय की प्रतीत होती हैं।
है। इस द्वीप में 52 देवों एवं पवित्रात्माओं द्वारा जिन
(तीर्थकर) पूजा की जाने का जैन शास्त्रों में वर्णन नन्दीश्वर
प्राप्त होता है। तदनुसार यह द्वीप मन्दिरों, सभागृहों; __ कला की दृष्टि से इनमें ताम्रचैत्य, प्रमुखतः नाट्यगृहों; सज्जित मंचों; सुन्दर स्तूपों, मूर्तियों एवं उल्लेखनीय है। यह नीचे वर्गाकारों तथा ऊपर पिरा- प्रतिमाओं, पवित्र चैत्य वक्ष, इन्द्रध्वज तथा कमलमिड के आकार का बना है। 1 फीट 6.75 इंच ऊँचे युक्त झील आदि से युक्त है। इन सभी मन्दिरों में अर्हत इस नन्दीश्वर चैत्य के वर्गाकारी आधार का क्षेत्रफल एवं जिन से सम्बन्धित पवित्र दिनों पर आठ दिवसीय 6.25 वर्गइंच है। नीचे के भाग में तीन वर्गाकार पर्व मनाए जाते हैं। जैन धर्मावलम्बी इस वर्णन के मंजिलें हैं, तीसरे वर्ग के ऊपर पिरामिड आकार का अनुसार वर्ष में तीन बार आषाढ़, कार्तिक तथा फाल्गुन आमालक युक्त गुम्बद बना है। प्रत्येक वर्ग के चारों माहों में अष्टमी से पूणिमा तक आठ दिवसीय अष्टाकोने पर स्तम्भ बने हैं। इन वर्गाकारी मंजिलों की निका पर्व मनाकर इस अवसर पर व्रत एवं पूजा आदि ऊँचाई नीचे से ऊपर की ओर, क्रमशः कम है। इन क ते हैं । वर्गों में चौबीस तीर्थ करों के चित्र हैं, सबसे नीचेवाले (तल) वर्ग में प्रत्येक ओर खडगासन मदा में तीन-तीन चैत्य पर अंकित शब्द क्षतिग्रस्त हो गए हैं। तल तीर्थ कर इस प्रकार कुल बारह तीर्थकर मुद्राएँ बनी मंजिल पर एक ओर "..."हीं .. ..."ना..दा... धी" हैं। इसके ऊपरवाले (मध्य) वर्ग पर प्रत्येक ओर शब्द पढ़े गये हैं, इनके आधार पर कई पुरातत्व वेत्ताओं पद्मासन (सम्प्रयँक) मुद्रा में दो-दो तीर्थकर इस प्रकार ने इसे 4-5वीं शती में निर्मित माना है, तथापि यह आठ तीर्थ कर मुद्राएँ बनी हैं। यह वर्ग ऊँचाई में तल चैत्य 9.10वीं शती के लगभग या इससे पूर्व का वर्ग की अपेक्षा कम ऊंचा है। इसके भी ऊपर सबसे अवश्य है । कम ऊँचाई वाले तीसरे वर्ग में प्रत्येक ओर एक-एक इस प्रकार कुल चार तीर्थकर मुद्राएँ अंकित हैं। इनमें
छठवें तीर्थ कर पद्मप्रभतीर्थकर पार्श्वनाथ की मुद्रा सभी से अलग प्रकार की अन्य चार जिन प्रतिमाओं में एक छठवें तीर्थ कर होने के कारण आसानी से पहचानी जा सकती है। पदमप्रभ की है जिसकी ऊँचाई आधार सहित साढ़े पांच इसमें शीर्ष के ऊपर पंचफणी सर्प अंकित है। प्रत्येक इंच, तथा बिना आधार के साढ़े तीन इंच है । पद्मासन तीर्थकर मुद्रा के वक्ष पर प्रतीक स्वरूप श्रीवत्स अंकित (सम्प्रयंक) अवस्था में बैठी इस मुद्रा के पृष्ठ भाग में
नालन्दा कांस्य की शैली के चँवर बने हैं। आधार के
10. "Jaina Images & Places of first class Importence", T. N. Ramachandran.
(Presidential adress during the All India Jaina Sasana Conference 194; Held on the occasion of the 2500th Anniversary of the first Preaching of lord Mahavir Swami; Calcutta) Publisher-Hony. Secy. Vira Sasana Sangha, 82 Lower Chitpur Road, Calcutta.
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रूप में बने आसन के मध्य पद्मासन के नीचे सामने की ओर तीर्थ कर पद्मप्रभ का लांछन कमल व प्रतिमा के शीर्ष पर ऊष्णस एवं घुंघराले बाल दृष्टव्य हैं ।
दूसरी प्रमुख प्रतिमा आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की है । कुल साढ़े दस इंच ऊँची इस प्रतिमा में तीर्थ कर मुद्रा मात्र ही साढ़े पाँच इंच ऊँचाई की है । सम्प्रयक में भद्रासन अवस्था में बैठी मुद्रा की इस जिन प्रतिमा के पृष्ठ भाग में नालन्दा जैसी उन्नत कला दर्शनीय है। प्रतिमा के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल कलात्मक स्वरूप लिये हुए है । प्रतीक स्वरूप तीर्थकर चन्द्रप्रभ का लांछन अर्द्धचन्द्र तथा वक्ष के मध्य श्रीवत्स का चिन्ह अंकित है। इनकी शैली के आधार पर सुनिश्चित रूप से इनका निर्माण काल 10-11वीं शती कहा जा सकता है।
पपात बदामन ने भी जैन सम्प्रदाय को प्रश्रय दिया था । वि. सं. 1034 ( सन् 977 ई.) में बदामन के राज्यकाल में ग्वालियर में जैन मूर्तियों
की स्थापना की गई थी।
इस प्रकार यह निश्चित है कि 11वीं शताब्दी में एक जिन मन्दिर तथा कुछ जैन मूर्तियां गोपाचगलढ़ पर निश्चय ही स्थित थीं । कच्छपघात मूलदेव (भुवनै कमल्ल) के राज्य में राज्याधिकारियों ने इस मन्दिर में जैन भक्तों का निर्वाध प्रवेश बन्द कर दिया था। मलधारी गच्छ के श्री अभयदेव सूरि के आग्रह पर महावीर स्वामी के इस मन्दिर के द्वार समस्त जैन जनता के लिये उन्मुक्त
कर दिये गए थे। 22
सन् 1844 ई. में जनरल कनिंघम ने ग्वालियर दुर्ग पर स्थित सास-बहू के मन्दिरों के निकट अत्यन्त
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में स्थित 35 फुट लम्बे तथा 15 फुट चौड़े खंडहर कमरे के संबंध में किये गये शोषकार्य के आधार पर उसे जैनियों के 23वें तीर्थ कर पार्श्वनाथ का मन्दिर माना है, और इसका निर्माणकार्य सन् 1108 ई. के लगभग सम्पन्न होना माना है। उसके पूर्ण सर्वेक्षण, आसपास किये गये खुदाई के कार्य और स्तम्भों के आधार पर उसका क्षेत्र पीछे 50 फुट और होना बताया है उसके अनुसार यह मन्दिर लगभग 69 फीट लम्बे तथा 15 फीट चौड़े क्षेत्र में फैला था।
इसके निर्माण का समय (सन् 1108 ई.) इस बात की साक्षी देता है कि यह मन्दिर कछवाहों के शासन काल में ही निर्मित किया गया। इससे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि इनके शासन काल में भी जैन अच्छी अवस्था में ये विस्तृत ऐतिहासिक विवरण के अभाव
।
में यह कहना अत्यंत कठिन है कि किस राजा ने दुर्ग पर इस मन्दिर का निर्माण करवाया अथवा निर्माण हेतु स्वीकृति प्रदान की। इससे भी यह प्रतीत होता है कि इसके भी शताब्दियों पूर्व से जैन इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व रखते थे और शनैः-शनैः वे इतने प्रभावशाली हो गये कि वे शासक एवं शासन को भी प्रभावित कर मन्दिर निर्माण करा सके ।
इस काल के ग्वालियर के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी जैन ।
मूर्तियों व शिलालेखों का निर्माण हुआ। बकुण्ड ( श्योपुर ) के वि. सं. 1145 (सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र के कच्छपघात भी जैन सूरियों को प्रश्रय देते थे । शान्तिषेण सूरि और उनके शिष्य विजयकीर्ति द्वारा वह प्रशस्ति लिखी गयी
11. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 20 ।
12. संगीतोपनिषत्सार, गायकवाड़ ओरियन्टल सीरिज, प्रस्तावना, पृष्ठ 7 ।
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थी।दवकण्ड के जैन मन्दिर के वि. सं. 1152 (सन किले से निकलकर मुसलमानों से युद्ध किया। युद्ध के 1095 ई.) के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वहाँ लिये राजा को जाते देख रानियों ने कहाकाष्ठासंघ के महाचार्यवर्य श्री देवसेन के पादूका चिन्ह की पूजा होती थी। नरवर में भी वि. सं. 1314
____ "पहले हमें जु जौहर पारी, (सन् 1257 ई.) से 1324 (सन् 1267 ई.) के तब तुम जूझो कन्थ सम्हारी' मूर्तिलेखों से युक्त सैकड़ों मूर्तियाँ नरवर में प्राप्त हुई हैं।
यह कहकर 70 रानियां किले में आग में कूदकर जो कुछ भी ज्ञान उपलब्ध है उसके आधार पर यह बलिदान हो गई। आज भी इस जौहर की स्मृति में कहा जा सकता है कि यहाँ जैन धर्मावलंबियों के परिबार जौहरताल का नाम विख्यात है। उरवाई दरबाजे मात्र निवास ही नहीं करते थे वरन यहाँ जैनियों पर इस घटना का उल्लेख करनेवाला शिलालेख के संघ भी संचालित थे जिनमें संघाधिपति तथा अन्वय सन् 1805 ई. तक पाया गया है। इस युद्ध में राजा हुआ करते थे। इतना ही नहीं वे नियमित विद्यापीठ का भी अपने 15 साथियों के साथ काम आए तब कहीं भी संचालन करते थे। 15वीं शताब्दी में बनी मूर्तियों मुसलमान इस किले पर कदम रख पाये। इसके बाद से प्राप्त जानकारी से ये तथ्य पुनः परीक्षित होते हैं। सन् 1318 ई0 तक यह दुर्ग मुसलमानों के अधिकार में
रहा। उन्होंने इसे राजकीय कैदखाने के रूप में प्रयोग सन् 1122 ई. में परिहारों ने इस वंश के अन्तिम
किया। इस प्रकार ग्वालियर का यह प्रदेश 166 वर्षों राजा तेजकरण को निकाल दिया और स्वतः राजा बन
तक लूट-खसोट और अत्याचार से आतंकित रहा। बैठे थे। परिहार वंश के कल 7 राआओं ने इस दर्ग पर राज्य किया। इस बीच में एक बार सन् 1196 ई. पर कभी किसी का शासन स्थायी नहीं रहा । जब में कुतुबुद्दीन ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दुर्ग पर तैमूर लंग ने भारत के अन्दर ऊधम मचाया तो मुस्लिम अपना अधिकार स्थापित किया परन्तु उनके हाथों में सत्ता डांवाडोल हो गई और वीरसिंह तंवर, जो कि यह दुर्ग अधिक न रह सका और 16 वर्ष बाद सन् सन् 1375 ई में मुस्लिमों की ओर से किलेदार नियुक्त
12 में परिहारों ने पुनः दुर्ग को वापस ले लिया हआ था, ने अवसर पाकर दुश्मनों को परस्पर लड़ाक और सन 1232 तक अपने अधिकार में रखा । सन् बडी चतुराई के साथ इस किले पर अपना अधिकार कर 1232 में अल्तमश ने तत्कालीन परिहार शासक सारंग लिया। इसने सम्भवतः सन् 1380 ई. में अपना राज्य देव पर भारी फौज सहित आक्रमण किया और 11 स्थापित किया। यह बड़ा पराक्रमी और विवेकी तथा मास तक दुर्ग को घेरे रहा । अन्त में सारंगदेव ने स्वयं राजनीति में दक्ष शासक था।
13. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क. 241 14: वही, क्र. 58। 15. जात. श्रीवीरसिंहः सकलरि पुकुलवातनिर्धातपातो,
वंशे श्रीतोमराणां निजविमलयशोख्यातदिक्चक्रवालः । दानाने विवेक भवति समता येन साकं नपाणां, के शामेषा कवीनां प्रभवति घिषणा वर्णने तद्गुणानां ।।
-यशोधरचरित प्रशस्ति
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इसके पश्चात् इसका पुत्र उद्धरणदेव अपने पिता की गद्दी पर बैठा । 16 शासन प्राप्ति के बाद यह कुल दो वर्ष ही जीवित रहा। इसके काल के संबंध में विशेष विवरण प्राप्त नहीं है । सन् 1402 ई. के लगभग उद्धरणदेव का पुत्र वीरमदेव गद्दी पर बैठा ।" यह बड़ा पराक्रमी था। इसके काल में मल्लू इकबाल खाँ ने इस पर आक्रमण किया परन्तु वह वीरमदेव को हराने में असफल रहा । इसके दरबार में कुशराज नाम का विश्वासपात्र महामात्य था । यह जैसवाल जैन कुल में उत्पन्न हुआ था, इसके पिता का नाम जैनपाल और माँ का नाम लोणा देवी था । यह राजनीति में बड़ा ही दक्ष और पराक्रमी था । 18 यह सदा जैनेन्द्र की सेवा में रत रहता था । यह अपनी भार्या रल्हो और लक्ष्मणश्री तथा पुत्र कल्याणमल्ल और उसकी भार्या जयत म्हिदे
18. वंशेऽभूज्जैसवाले विमलगुणभूलणः साधुरत्नं,
इत्यादि परिवार के कल्याण के लिये उस यंत्र की पूजा करता था । इसकी एक तीसरी भार्या कौशीरा थी ।
इसने भ. विजय कीर्ति के उपदेश से ग्वालियर में चन्द्रप्रभु का एक विशाल मन्दिर बनवाया था और भारी धूमधाम से उसका प्रतिष्ठोत्सव समारोह आयोजित किया । इस अवसर पर जोनार (सामूहिक भोज) भी आयोजित की गई । चन्द्रप्रभु का यह मन्दिर ही बाद में शेख मोहम्मद गौस का निवास स्थान बना जिसे आजम हुमायूँ ने भ्रष्ट कर दिया था । इस घटना का विस्तृत उल्लेख आगे उपलब्ध है ।
16. ईश्वर चूडारत्नं विनिहत करघातवृत्त संहातः । चन्द्र इव दुग्धसिंधोस्तस्मादुद्धरणभूपतिर्जनितः ॥ 17 तत्पुत्रो वीरमेन्द्रः सकलवसुमती पाल चूड़ामणिर्यः ।
प्रख्यातः सर्वलोके सकलबुधकलानन्दकारी विशेषात् । तस्मिन् भूपालरत्ने निखिलनिधिगृहे गोपदुर्गे प्रसिद्धि,
भु' जाने प्राज्यराज्यं विगतरिपुमयं सुप्रजः सेव्यमानः ॥ - यशोधरचरित प्रशस्ति
राजा का विश्वासपात्र महामात्य जैन होने के कारण वीरमदेव के शासन काल में जैन धर्मावलंबियों को विकास का अच्छा अवसर मिला । कुशराज ने
साधुश्री जैनपालो भवदुदितयास्तत्सुतो दानशीलः । जैनेन्द्रः राघनेसु प्रमुदित हृदयः सेवकः सद्गुरूणां, लोणाख्या सत्यशीलाऽजनि विमलमतिर्जनपालस्य भार्या जातः षट्तनयास्तयोः सकृतिनोः श्रीहंसराजोभवत्, तेषामाद्यतमस्ततस्तदनुजः सौराजनामाऽजनि । रैराजोभवराजकः समजनि प्रख्यातकीर्तिमहासाधुश्री कुशराजकस्तदनु च श्री क्षेमराजो लघुः ||6|| जाताः श्रीकुशराज एव सकलक्ष्मापालचूडामणेः, श्रीमत्तोमर-वीरमस्य विदितो विश्वासपात्रं महान् । मंत्री मंत्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणारिपक्षः क्षणात् । क्षेणीमीक्षणरक्षणमति जैनेन्द्र पूजारतः ॥7॥
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- यशोधरचरित प्रशस्ति
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- यशोधरचरित प्रशस्ति
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दरबार के ही एक अन्य कायस्थ विद्वान पद्मनाभ से भ. गुणकीर्ति के आदेशानुसार " यशोधर चरित्र" (दया सुन्दर विधान ) नामक काव्य की रचना करवाई । इसके शासनकाल की संवत् 1460, 1468, 1469 और 1479 की लिखी हुई चार ग्रन्थलिपि प्रशस्तियां अभी भी उपलब्ध हैं। सं. 1460 में गोपाचल में साहू वरदेव के चैत्यालय में भ. हेमकीर्ति के शिष्य मुनि धर्मचन्द ने माघ वदी दशमी के दिन " सम्यकत्व कौमुदी" की प्रति आत्मपठनार्थ लिपिबद्ध को। सं. 1468 में आषाढ़ वदी 2, शुक्रवार के दिन काष्ठा संघ, माथुरान्वय के आचार्य श्री भावसेन, सहस्त्रकीर्ति और भ. गुणकीर्ति की आम्नाय में साहू मरूदेव की पुत्री देवसरि ने 'पंचास्तिकाय" टीका की प्रतिलिपि लिपिबद्ध कराई थी। जो इस समय कारंजा के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है 120
संवत् 1469 में आचार्य अमृतचन्द कृत प्रवचन सार्थी की "तत्बदीपिका " टीका लिखी गई। सन् 1479 में आषाढ़ सुदी 5 बुधवार के दिन गढ़ोत्पुर के नेमिनाथ चेत्यालय में जौतुका स्त्री सरो ने अपने ज्ञानवर्णी कर्णो के क्षयार्थ " षटकर्मोपदेश" की एक प्रति लिखकर जैत श्री की शिष्या विमलमति को पूजा विधान महोत्सव के
साथ समर्पित की थी जिसे पंडित रामचन्द्र ने लिखा था । यह प्रति आमेर के भण्डार में सुरक्षित है ।
वीरमदेव के पश्चात् उसका पुत्र गणपतिदेव गद्दी पर बैठा । उसका राज्यकाल अत्य रहा, जिसका विवरण उपलब्ध नहीं है ।
सन् 1424 में गणपतिदेव के पुत्र डूंगरसिंह तंवर गद्दी पर आसीन हुए । यह बड़े ही वीर और पराक्रमी शासक थे । उसने शासन सँभालते ही अपनी सेना संगठित कर मालवे की राजधानी मांडू पर आक्रमण कर वहाँ के राजा हुशंगशाह को परास्त किया। संभवतः इसी विजय में इनके हाथ कोहिनूर नामक विश्वप्रसिद्ध हीरा लगा। इस प्रकार उसने अपने राज्य की सीमा और बढ़ाकर अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली । इसके काल में राज्य में सभी प्रकार की सुख शांति थी । इससे निकटवर्ती राज्यों के शासकों की ललचाई दृष्टि सदैव इसके राज्य पर लगी रहती थी और यदा-कदा ग्वालियर पर आक्रमण होते रहते थे । राजा डूंगरसिंह ने सभी का डटकर मुकाबला किया और सभी में विजयी रहे । विभिन्न लेखकों ने इसकी वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि "वह अनेक राजाओं द्वारा पूजित
19. सम्वत् 1460 शाके 1325 षष्ठाव्दयोर्मध्ये विरोधी नाम संवत्सरे प्रवर्तत गोपाचल दुर्गस्थाने राजा वीरमदेव राज्य प्रवर्तमाने साहु वरदेव चैत्यालये भ. श्री हेमकीर्तिदेव तत्शिष्य मुनि धर्मचन्द्र ेण आत्मपठनार्थ पुस्तकं लिखितं माघ वदि 10 भौमदिने ।
- तेरापंथी मन्दिर जयपुर, शास्त्र भण्डार
20 संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्य गतान्द 1468 वर्ष आषाढ़ वदि 2 शुक्र दिने श्री गोपाचले राजा वीरमेदेव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्कर गण आचार्य श्री भावसंनदेवाः तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे मट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवास्तेषामाम्नाये संघई महाराजवधू साधु मरदेव पुत्री देवसिरी तथा इदं पंत्रास्तिकायसार ग्रंथ लिखापितम् ।
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- कारंजा भण्डार, जयपुर
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तया सम्मानित था। और शत्रुओं का मान मर्दन करने चारों ओर जैन प्रतिमाओं के खुदवाने का कार्य प्रारम्भ में दक्ष था 12" युद्ध-स्थल में उसके समान कोई वीर कर दिया। इन अभिलेखों में जैनाचार्य देवसेन, योद्धा नहीं था। नरवर गढ़ में स्थित विजय स्तम्भ यशकीति, जयकीति, आदि भट्टारकों का भी उल्लेख (जैत स्तम्भ) अभी भी इसकी साक्षी दे रहा है। मिलता है। इस कार्य पर करोड़ों रुपये व्यय हुए
तथा कुल 33 वर्ष का समय लगा। डू'गरसिंह अपने परन्त इन सब विजय अभियानों में व्यस्त रहते हुए जीवनकाल में इसे पूरा नहीं करा सका। तब उसक भी उसका ध्यान विद्वानों, धार्मिक समारोहों और
प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह ने उसे पूरा कराया। निर्माणों की ओर भी गया। इसने जैन धर्म के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया । जैन धर्म से उसका अनुराग डूंगरसिंह के राज्य में अन्य निर्माण और मूति प्रतिष्ठा मात्र ही नहीं था किन्तु उस पर उसकी परम आस्था थी। वे जैन धर्म के प्रबल पोषक थे। वह जैन विद्वानों
मूर्ति निर्माण के अतिरिक्त राजा डूंगरसिंह के समय एवं संतों को बड़े ही आदर की दष्टि से देखता था। में ग्वालियर के जैन धर्मानुयायी श्रावकों ने ग्रन्थ निर्माण
__और मूर्ति प्रतिष्ठा का भी कार्य सम्पन्न कराया। सन् इसके राज्यकाल में ही ग्वालियर गढ़ की चट्टानों 1429 में म. गुणकीर्ति के शिष्य भ. यशकीर्ति ने आत्म में जैन प्रतिमाओं के उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ। पठनार्थ, "सुकुमाल चरित".3 और कवि श्रीधर की सन् 1440 ई. के तीन शिलालेख इस बात के सूचक हैं "संस्कृत भविष्य दत पंचमी" कथा की प्रतियाँ लिखकि इनके आश्रय में अनेक जैन धर्मावलम्बियों ने दुर्ग के वाई थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिवंश पुराण,
21. श्री तोमरानुर्काशखामणित्वं, यः प्रापभूपालशताचितांघ्रिः।। श्री राजमानो हतशत्रुमानः ।, श्री डूंगरेदोऽत्र, नराधिपोस्ति ।।
समयसार लिपि प्र० सेनगण भण्डार, कारंजा ................ भुपबल पराणु, समरंगणि अण्णु ण तहु समाणु । णिरुवम अविरल गुण मणि णिकेउ, .............. । साहणसमुदु जयसिरिणिवासु, जस ऊयरि पउरियदहदिसासु । जस करवाल णिहाएं अरि-कवाल, तोडि वि धल्लिउ णं कमलणालु । दुपिच्छ मिच्छ रणरंगु मल्लु, अरियणकामिणिमण दिण्ण सल्लु ।
.. सम्मतत्तगुणनिधान प्रशस्ति 23. -सवत् 1468 वर्ष अश्वणि वदि 13 सोमदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंहथेव देवविजयराज्य
प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्चये आचार्य श्री भावसेन देवास्तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीति देवास्तत्पट्टे श्री गुणकीर्ति देवास्तशिष्येन श्री यशः कीतिदेवन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं सुकमाल चरित
लिखापितं । कीयस्थ याजनापुत्र थलू लेखनीयं । ...... जयपुर भण्डार । 24. संवत् 1486 वर्ष आषाढ़ वदि 9 गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघ
माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहस्त्रकीर्ति देवास्तत्पट्टे आचार्य गुणकीर्ति देवास्तच्छिष्य यश:कीति देवास्तेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितं ..... नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली
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रात्रि भोजन कथा, रविवार व्रत कथा, चन्द्रनाथ चरित्र आदि 23 ग्रन्थ भी लिखे थे । ये सं. 1486 तक रहे ।
सम्वत् 1492 से पूर्व अग्रवाल वंशज साहू बेमसिंह के पुत्र साहू कमलसिंह ने 11 हाथ ऊँची आदिनाथ की एक विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। इसके प्रतिष्ठोत्सव में राजा दूंगरसिंहजी ने शासन से पूरा सहयोग प्रदान किया और ताम्बूल आदि से उसका सम्मान किया। "
संवत् 1492 में साहू कमलसिंह ने कवि रईपू से "सम्मत गुण निधान" नामक ग्रन्थ की रचना करवाई जो भाद्रपद मास के पूर्णिमा के दिन समाप्त हुई। इस ग्रन्थ की रचना करने में कवि को 3 मास का समय लगा। इसके बाद कवि रई ने "नेमिनाथ चरित्र", "पार्श्वनाथ चरित्र" तथा "बलभद्र चरित्र" (रामायण) नामक ग्रन्थों की रचना की। सं. 1496 में रचे गये "सुकौशल चरित्र" नामक ग्रन्थों में इन ग्रन्थों की रचना का उल्लेख किया गया है। ये जाति के पदमावती पुरवाल थे । इनके पिता का नाम हरिसिंह सिंगी था ।
बलहर चरिउ में केवल हरिवंश पुराण (नेमिजन चरिउ ) के रचे जाने का भी उल्लेख मिलता है । हरिवंश पुराण में त्रिषष्टिशलाका चरित ( महापुराण ), मेधेश्वर चरित्र, यशोधर चरित्र, वृत्तसार और जीवंधर नामक 6 अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख किया गया है । ये सभी सं. 1496 से पूर्व के रचे गये हैं। सम्मईजिन
25.
26.
27.
28.
चरित प्रशस्ति में मेघदवर चरित, त्रिषष्ठि महापुराण, सिद्धचक्रविधि, बलहद्द चरिउ, सुदर्शन चरित और धन्यकुमार चरित नामक ग्रन्थों का भी उल्लेख है । संभवतः ये सभी ग्रन्थ कवि रईघू ने सं. 1492 और 1496 के काल में लिखे हैं । इनमें एक और ग्रन्थ "आत्म संबोध काव्य" की 29 पत्रात्मक जीर्ण प्रति भी उपलब्ध है। 2" जो संवत् 1448 की लिखी हुई है । रईघू के काल में ग्वालियर में जैन धर्म एवं संस्कृति अत्यधिक सम्पन्न अवस्था में थी। डूंगरेन्द्रसिंह और कीर्तिसिंह के काल में गढ़ के नीचे नगर में बहुत से जैन मन्दिर बने थे । रईधू ने लिखा है कि- "नगर जैन मन्दिरों से विभूषित था और श्रावक दान-पूजा में निरत रहते थे । ........ " नैमिनाथ, चन्द्रप्रभु और वर्द्धमान के जैन मन्दिर थे और उनके पास बिहार भी बने थे।" स्वयं रई ऐसे ही बिहार में रहता था। अलवर और चौरासी मथुरा के जैन मन्दिरों में ग्वालियर के तौमरों के उल्लेख युक्त प्रतिमाएँ इन्हीं जैन मन्दिरों की हैं। इससे प्रतीत होता है कि कविवर रईघू दीर्घजीवी रहे होंगे। उपलब्ध ग्रन्थों से उनका रचनाकाल सं. 1448 से सं. 1525 तक का उपलब्ध होता है ।
...
सं. 1497 में "परमात्म प्रकाश" ग्रन्थ की सटीक प्रति की रचना की गई । 27 इसी वर्ष पांडु पुराण भी अपभ्रंश भाषा में लिखा गया । सं. 1506 में घनपाल की " भविष्यदत्त पंचमी कथा" तथा सं. 1510 में " समय सार" नामक ग्रन्थों की प्रतिलिपि की गई ।128
- जो देवाहिदेव तित्यंकरु, आइणाहु तित्थोय सुहंकरु । तहु पडिमा दुग्गइ - निण्णासणि, जामिच्छत - गिरिद - सरासणि, जामहिरो- सोय दुहणासणि
संवत 1448 वर्षे फाल्गुण वदि 1 गुरौ दिने स्त्रावग लष्मण कम्मक्षय विनाशार्थ लिखितं । आमेर भण्डार जयपुर में अभी भी सुरक्षित है ।
यह अभी भी जयपुर के ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है।
यह अभी भी कारंजा के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है ।
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"
- यह
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उनके अतिरिक्त ज्ञानार्णव, चन्द्रप्रभु चरित्र तथा परिमाल कवि आगरा द्वारा श्रीपाल चरित्र आदि लिखे गये। सं. 1497 और सं. 1510 में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख उपलब्ध हैं।
शाह टोडरमल जी, दोल जी काशलीवाल भी उनके काल में ही मारवाड़ से ग्वालियर आये थे । उस समय तोमर व कछवाय जैन मत पालते थे। उन्होंने पहाड़ी पर गुफा व जैन मन्दिर के निर्माण भी कराये ।
वे जैनधर्म से बड़ा प्रभावित थे । तत्कालीन म. गुणकीति के प्रति इसके हृदय में असीम श्रद्धा थी । उनके उपदेशामृत से इसने जैन धर्म स्वीकार किया। इस काल में गुणकीर्ति उनके शिष्यों तथा प्रशिष्यों का भी जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में
इन मूर्तियों का निर्माण मूर्तिकला के क्षेत्र में इस प्रदेश के कारीगरों का अभिनव प्रयास था जिसके अन्तर्गत वि. सं. 1530 तक के 33 वर्ष के थोड़े समय
सर्वाधिक योगदान रहा । इसके काल में अनेकों मूर्तियों में ही दुर्ग की ये बेडोल और मूक चट्ट ने विशालता, का निर्माण हुआ तथा प्रतिष्ठायें करवाई गई। इसके काल में प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी इसने कुल 30 वर्ष । तक ग्वालियर पर शासन किया ।
वीतरागिता, शान्ति, एवं तपस्या की भाव व्यंजना से मुखरित हो उठीं । गढ़ के चारों ओर खुदी हुई इन विशाल मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन मूर्तियों के निर्माणकर्ता अपनी श्रद्धा और भक्ति के अनुकूल विशाल प्रतिमाओं का निर्माण करना अथवा कराना चाहते होंगे। अतः इससे प्रेरित होकर उत्की faों ने निर्माणक की निर्मल भावनाओं को साकार रूप प्रदान करने के उद्देश्य से उस विशालता में सौन्दर्य का और समावेश कर कला की अपूर्व कृतियों का निर्माण किया । प्रतिमाओं के ये समूह दुर्ग के विभिन्न अंचलों में बने हैं जो गुहा मन्दिरों के नाम से जाने जाते हैं । ये असंख्य छोटे-बड़े मन्दिर संख्या और आकार की दृष्टि से उत्तर भारत में अद्वितीय हैं। मूर्तिकला और मन्दिर स्थापत्य दोनों में अद्भुत सामंजस्य स्थापित है । सबसे
।
इसके पश्चात् कीर्तिसिंह या कीर्तिपाल गद्दी पर बैठा । यह डूंगरसिंह का पुत्र था । यह अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था 132 यह पराक्रमी होने के साथ-साथ दयालु, सहृदय और प्रजा वत्सल भी था। इसने लगभग सन् 1924 में शासन भार ग्रहण किया ।
इसने अपने राज्य को और भी बढ़ाया। इसके समय के दो लेख 1468 और 1473 ई. के मिले हैं। इसकी मृत्यु सन् 1479 में हुई थी अतः इसका राज्यकाल 1479 तक माना जाता है ।
"
यह जैन धर्म में अत्याधिक आस्था रखता था । इसने अपने पिता द्वारा अधूरे छोड़े गये मूर्तियों के उत्खनन के कार्य को पूरा कराया। इसका काल सं. 1522 से 1531 तक मिलता है। इस काल में अनेकों नई मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हुई जिनमें अकित लेखों में कीर्तिसिंह का उल्लेख मिलता है । उदाहरणार्थ - बाबा की बावड़ी के दाहिनी ओर बनी पार्श्वनाथ की मूर्ति पर लिखे अभिलेख में महाराजा कीर्तिसिंह का विवरण दिया है। इस खड़गासन मूर्ति के निकट ही नौ अन्य मूर्तियाँ भी खुदी हैं जिनमें कुछ पदमासन भी हैं। इनके मुख खंडित कर दिये गये हैं।
29. देखो जनरल एशियाटिक सोसाइटी भाग 31, पु. 423 गोपाचल दुर्गे तोमरवंशे राजा श्री गणपति देवास्त पुत्रों महाराजाधिराज श्री डूंगरसिंह राज्ये (प्रतिष्ठितं ) चौरासी मथुरा की मूलनायक मूर्ति का लेख । कवि रईधू - श्रीपाल चरित्र
समयसार लिपि, प्र० शास्त्र भन्डार, कारंजा ।
30. 31.
३४=
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प्रमुख विशेषता यह है कि इनका निर्माण राजाओं ने वास्तव में यह 57 फुट ऊँची है । इसकी चरण चौकी नहीं वरन् तत्कालीन जैन व्यापारियों व अन्य पर सं. 1497 लिखा है। वर्तमान में इसके नीचे का श्रावकों ने करवाया। अनेक जैन महिलाओं ने भी इसके कुछ भाग मिट्टी में दब गया है। यह चरणों के पास निर्माण के लिये दान दिये थे। इस कार्य में हजारों 9 फूट चौड़ी है। यहीं 22 नम्बर की नेमिनाथ के शिल्पकारों ने भाग लिया, जिनके कुशल हाथों ने पदमासन मूर्ति है। जो 30 फुट ऊँची है। नेमिनाथ की लगभग डेढ़ मील लम्बे गोपाचल दुर्ग को उत्कीर्ण करने इतनी विशाल मूर्ति शायद ही अन्यत्र कहीं हो । योग्य कोई कोना शेष नहीं छोडा। इन सारी प्रतिमाओं को 5 समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
(2) दक्षिण पश्चिम सम हः -- यह खंभा ताल के
नीचे उरबाई द्वार की बाहर की शिला पर है। इसमें (1) उरबाही सम हः-उरबाई द्वार पर कुल 22 5 मूतियाँ हैं। 1 नम्बर के प्रतिमा समूह में एक स्त्री, जैन मूर्तियाँ हैं। इनमें से 6 मुर्तियों पर सं. 1497 पुरुष तथा बालक की मूर्तियाँ हैं । 2 नम्बर में एक 8 (सन् 1440 ई.) से सं. 1510 (सन् 1453 ई.) फूट लम्बी लेटी हई स्त्री की प्रतिमा है जो 8 फुट लम्बी के अभिलेख खदे हैं । इनमें 20 नम्बर की आदिनाथ की है। इस पर ओष किया हआ है। प्रारम्भ में कुछ लोग मति सबसे विशाल है। बाबर ने अपने "बाबरनामा' इसे बुद्ध भगवान की मूर्ति बताते थे। परन्तु विशेष में इसकी ऊँचाई 20 गज अनुमान की थी। परन्तु शोध करने के पश्चात इतिहासकार इसी निष्कर्ष पर
(ग्वालियर दुर्ग पर उत्थित पदमासस मुद्रा में विशाल जैन प्रतिमा)
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एक पत्थर की वावडी पर स्थित गुहा मन्दिर में उत्खनित विशाल जन प्रतिमाओं के समूह का एक दृष्टि)
पहुँचे कि ये जैन मूर्तियाँ हैं। संभवतया यह त्रिशला इस समह में लगभग 20 प्रतिमायें 20 से 30 फट माता तथा महावीर की मूर्ति है। कला की दृष्टि से इन तक की ऊँचाई की और लगभग इतनी ही 8 से 15 फट मूर्तियों का विशेष महत्व नहीं है ।
तक की ऊँचाई लिये हुये हैं। इसमें आदिनाथ, नेमिनाथ, (3) उत्तर पश्चिम समूह :-- इसमें आदिनाथ पद्मप्रभु, चन्द्रप्रभु, संभवनाथ, कुन्तनाथ, और महावीर की एक महत्त्वपर्ण मूर्ति बनी है जिस पर सं. 1527 का आदि की मूर्तियाँ हैं । इनमें कुछ एक मतियों पर 1525 अभिलेख अकित है। यह विशेष कलात्मक नहीं है। से 1530 तक के अभिलेख खुदे हये हैं।
(4) उत्तर पूर्व समूह :-- इसमें भी छोटी-छोटी इन समहों में तीर्थकरों के अतिरिक्त अंविका, यक्ष, मतियाँ हैं और उन पर भी कोई लेख न होने से यक्षिणी तथा विभिन्न प्रतीक भी उत्कीर्ण किये गए हैं। एतिहासिक दष्टि से अधिक महत्व नहीं रखती हैं । कला इनके अतिरिक्त तेली की लाट के पास तथा गुजरी महल की दृष्टि से भी उनका कोई विशेष महत्व नहीं है। संग्रहालय में रखी प्रतिमायें भी अधिकतर इनकी सम
(5) दक्षिण पूर्व समूह :-इस समूह की मूर्तियाँ कालीन प्रतीत होती हैं। इससे प्रतीत होता है कि कला की दृष्टि से अत्याधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये मूर्तियाँ उपरोक्त समूहों के अतिरिक्त अन्य प्रतिमाओं का भी फूलबाग के दरवाजे से निकलते ही लगभग आधे मील निर्माण हुआ था। के क्षेत्र में खदी हुई दिखाई देती हैं। अन्य मूर्तियों की
ग्रन्थ निर्माण-मूर्ति प्रतिष्ठायें :अपेक्षा कूछ बाद में बनने के कारण ये अभ्यस्त हाथों द्वारा निर्मित होने के कारण इनमें अंगों के अनुपात इनके शासनकाल में ही कशा साह जी जैसवाल और सौष्ठव में कहीं न्यूनता नहीं दिखाई देती। इनमें वंशज ने गोपाचल पहाड़ी के बाहरी तरफ कुछ गुफाओं कला का रूप निखर उठा है।
में मूर्तियाँ खुदवाई तथा मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठाये
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करवाई जिसमें करोड़ों रुपये व्यय हुये । एक अन्य अग्र- सं. 1521 में "ज्ञानार्णव" नामक ग्रन्थ की एक वाल वंशज गोयल गोत्री खल्हा नामक जैन सज्जन ने प्रतिलिपि लिपिबद्ध की गई। भ. गुणभद्र ने भी भी गोपाचल के बाहरी ओर गुफा मन्दिर बनवाकर ग्वालियर निवासी जैन श्रावकों की प्रेरणा से अनेकों आचार्य महीचन्दजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठा करवाई। कथाओं की रचना की। इसमें भी करोड़ों रुपये व्यय हये । सं. 1515 में बाबड़ी की ओर गोलालारे वंशज कमूद चन्द्र ने पार्श्वनाथ की
___ कीतिसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र कल्याण
मल (मल्लसिह) ने शासन की बागडोर संभाली। मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई जिसमें सिंहकीति नामक
इन्होंने सं. 1481 ई. से 1486 ई. तक ही शासन भट्टारक ने भी भाग लिया।
किया। इनके समय में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं सं. 1521 में ग्वालियर के जैसवाल कूल भूषण
हुई। संभवत अपने शासनकाल के 7 वर्षों में इन्होंने
कीर्तिसिंह के उन कार्यों को, जो अधूरे थे, पूर्ण किया। उल्हा साहू के नेष्ठ पुत्र साहू पदमसिंह ने अपनी चंचल लक्ष्मी का उपयोग करने के लिये 24 जिनालयों का
इनका काल बहत शान्तिपूर्वक बीता। इनके काल का
सं. 1552 का केवल एक ही मूर्तिलेख उपलब्ध है।" निर्माण करवाया तथा एक लाख ग्रन्थ लिखवाकर मेंट किये । इनके राज्यकाल में जैन साहित्य रचना का
_सन् 1486 ई. में कल्याणमल की मृत्यु के पश्चात् भी कार्य हुआ। कविवर रईघू ने इनके राज्य काल
उनका पुत्र मानसिंह गद्दी पर बैठा । यह राजा, बड़ा में "सम्यक्त्व कौमुदी" तथा "श्रावकाचार" की रचना
प्रतापी, संगीत प्रेमी और कला प्रेमी था और जिस की।
किसी प्रकार से अपने पूर्वजों द्वारा संरक्षित एवं संवर्धित
राज्य को स्वतंत्र रखने में समर्थ हो तुका था । उपरोक्त मन्दिरों में से कुछेक समाप्त हो गये हैं इसे अपने शासनकाल में अनेकों बार बहलोल लोदी और कुछ का जीर्णोद्धार होकर नये मन्दिर बन गये हैं और उसकी मत्यू पर उसके पूत्र सिकन्दर लोदी से जो अभी भी ग्वालियर में अपने परिवर्तित रूप में स्थित लोहा लेना पड़ा। इसने संगीत और कला को अपना हैं। साहित्य का अधिकतर भाग नष्ट हो गया है, बहत । सरक्षण प्रदान किया। इसके काल में यहाँ एक संगीत कम ही शेष है। .
विद्यालय भी था। सुप्रसिद्ध गायक तानसेन ने इसी
32. विज्जुल चंचलु लच्छीसहाउ, आलोइबिहुउ जिणधम्ममाउ।
जिण गंथु लिहावउ लक्वु एकु, सावय लक्खा हारीति रिक्खु । मुणि भोजन भुंजाविय सहासु, चउवीस जिणालउ कि उ सुमासु - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्रशसित
सं०, पृ० 144 बाराबंकी शास्त्र भंडार. । 33. यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरा में उपलब्ध है। 34. जैन लेख संग्रह -पूर्णचन्द्र नाहर भाग 2 । 35. ___ एक सोबनकी लंका जिसि, तो वरू राउ सबल वरवीर। भुयबल आयु जु साहस धीर, मानसिंह
जग जानिये । ताके राज सुखी लोग, राज समान करहिं दिनभोग । जैनधर्म बहुविधि चलें, श्रावगदिन जु करें षट् कर्म ।
-नमीश्यवर गीत
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विद्यालय में संगीत शिक्षा ग्रहण की थी। इसके द्वारा उक्त शिलालेख से प्रकट होता है कि मानसिंह के बनवाया गया महल मान मन्दिर (चित्र महल) हिन्दू काल में भी कुछ जैन प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई थीं। स्थापन्य कला का अदभुत नमूना है । बाबर ने भी इस उक्त प्रतिमा की स्थापना सरस्वती गच्छ के भद्रारकों ने महल की कारीगरी की प्रशंसा की है । इसके अतिरिक्त कराई थी। इसने मृगनयनी गूजरी के लिये गूजरो महल बनवाया । द्य पद गीतों का आविष्कार भी सर्वप्रथम महाराजा
भट्टारक मणिचन्द्र देव के पश्चात् जो मुनि हए मानसिंह द्वारा ही हआ। इन्होंने "मान कुतुहल" के ।
उनका नाम उक्त शिलालेख में नहीं पढ़ा जा सका, तथापि नाम से एक संगीत ग्रन्थ की रचना की। परन्तु इन
उन्हें भट्टारक के स्थान पर मुनि कहने से प्रकट होता है सबके बावजूद इसके शासनकाल में इसके द्वारा किसी
कि मूलसंघ की इस शाखा का मूल पट्ट ग्वालियर के
बादर कहीं स्थापित हो गया था। 37 प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार को प्रश्रय नहीं दिया जाने से, इस समय तक उपलब्ध अपभ्रंश की रचनाओं की
प्राचीन साहित्य के अभाव में यह कहना कठिन है परम्परा समाप्त हो गई जिसके कारण आज अन्य अनेकों
कि महाराजा डूगरसिंह एवं कीर्तिसिंह के राज्यकाल तथ्य अँधेरे के गर्त में डूब गये हैं।
में समादृत जैन साधुओं एवं भट्टारकों के प्रति उनका
व्यवहार कैसा था तथापि इस बात की संभावना कम - महाराजा मानसिंह के काल का सन् 1495 ई. का
ही है कि संगीत, भवन निर्माण, कला को संरक्षण देनेएक शिलालेख अवश्य ग्वालियर गढ़ की एक जैन प्रतिमा की चरण चौकी पर मिला था, जिससे इस प्रदेश की
वाले तथा युद्धों में व्यस्त महाराजा धार्मिक विवेचन के जैन धर्म की तत्कालीन स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
लिये समय दे सके होंगे। साहित्यिक प्रमाणों के अभाव ' उसकी प्रथम तीन पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। ...
में इनके काल के संबंध में कोई शोध-कार्य नहीं हो पाया
है । फिर भी एक-दो उल्लेख मिलते हैं जिनके अनुसार श्रीमद गोपाचलगढ़
महाराजाधिराज सन् 1501 में चैत्र सुदी 10 सोमवार के दिन कामठासंघ श्री मल्लसिंहदेव विजयराज्ये प्रवर्तमाने । संवत 1552 नंदिगच्छ विद्यागण के भट्टारक सोमकीर्त और भ. वर्षे ज्येष्ठ सुदि 9 सोमवासरे श्री मूलसंघे वलत्करगणे विजयकीति के शिष्य व्रह्यकाला द्वारा गोपाचल दुर्ग में
सरस्वतीगच्छे । कुदकुदाचार्यान्विये । भ. श्री पद्म- आत्म पठनार्थ अमर कीति के "षट्कर्मोपदेश' की प्रति नन्दिदेव तत् पट्टालंकार श्री शुभचन्द्र देव । तत्पट्ट लिखवाए जाने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिभ. मणिचन्द्र देव । तत्पट्टे पं. मुनि ...' गणि कचर रिक्त सन् 1512 में गोपाचल में श्रावक सिरीमल के देव तदन्वये बारह श्रेणी वंशे सालम भार्या व ..... पूत्र चतरू ने 44 पद्यों के "नेमीश्वर गीत""की रचना
36. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, क० 341, पूर्णचन्द्र नाहर, जैन अभिलेख-भाग 2, क्र० 1429 । 37. ग्वालियर के तोमर-हरिहर निवास द्विवेदी, प्र० 1। .8. अथ नपति विक्रमादित्य संवत् 1558 वर्ष चैत्र सुदी 10 सोमवासरे अश्लेखा नक्षत्रे गोपाचलगढ़ दुग
महाराजाधिराज श्री मानसिंह राज्ये प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे नंदिगच्छे विद्यागणे भ० श्री सोमकीर्ति देवास्तत्पटे भ. श्री विजयसेन देवास्तत शिष्य ब्रह्मकाला इद षट्कर्मोपदेशशास्त्र लिखाप्ये आत्मपटना।
-प्रशस्ति सं० आमेर पृ० 173
३५२
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की। इसमें जैनियों के 23 वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित है ।"
उधर सिकंदर लोदी की मृत्यु के पश्चात् इब्राहीम लोदी ने शासन संभालते ही अपने पूर्वजों की महत्त्वा कांक्षा को साकार करने के उद्देश्य से ग्वालियर दुर्गं पर पुनः आक्रमण कर दिया। इसी बीच सन् 1519 ई. में महाराजा मानसिंह की मृत्यु हो गई और तलवारों की छाया में उनके पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे। उनके नेतृत्व में राजपूत जी तोड़कर लड़े पर अपने से अनुपात में कई गुनी लोदियों की सेना पर विजय न पा सके और लोदियों के सेनापति हुमायूं से सन्धि करना पड़ी । वे अब शमसाबाद के एक जागीरदार मात्र रह गए और उन्हें लोदियों की ओर से पानीपत में बाबर के विरुद्ध युद्ध करने भेजा गया । इस बीच तंवर वंश के एक दूसरे तेजस्वी राजकुमार रामसिंह तोमर ने ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर किले के अफगान अधिकारी तातार खां को परास्त कर दुर्ग पर अपने झण्डे गाड दिये ।
लगभग इसी काल में सन् 1523 ई. के आसपास कभी पोल मोहम्मद गौस नामक फक्कड़ साधू गाजीपुर (मूलनाम कुमारगढ़) से ग्वालियर आ बसे । वे आकर चन्द्रप्रभू के मन्दिर में ठहरे । यह चन्द्रप्रभू का मन्दिर वही विशाल जैन मन्दिर था जिसे वीरमदेव तोमर के मंत्री कुश राज ने बनवाया था ।" यह मन्दिर आजम हुमायूँ के आक्रमण के समय (सन् 1518 23 ) क्षतिग्रस्त कर दिया गया था । शेख गौस ने इसी में अपनी खानकाह बनाई और आज वहीं उसका मजार बना है।
39.
इन पंक्तियों के लेखक ने सन् 1669 में प्रकाशित ग्वालियर जैन डायरेक्टरी में अपने एक लेख "अतीत की ओर एक दृष्टि" में इतिहासकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था, और बड़ी प्रसन्नता का विषय है। कि सन् 1976 में प्रकाशित श्री हरिहर निवास जी द्विवेदी की पुस्तक " ग्वालियर के तौमर" में इस सम्बन्ध में उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाण एवं तथ्य उजागर हुए हैं। इस सम्बन्ध में खड्गराय की पुस्तक " गोपाचल आस्थान" में वर्णित सूत्र पर्याप्त प्रकाश डालता है :
जो विधिना विधि आपन करें, सोई होई न टारी टरं । देखो विधना को संजोग, जनमें कहूँ कहूँ रहैं लोग || पूंरव गाजीपुर को ठाऊ, कुमरगढ़ा ताको रहि नाऊ । मोहम्मद गौस जहां ते आई, रहे ग्वालियर में सुख पाइ ॥
यह ग्रन्थ अभी आमेर भण्डार में सुरक्षित है । संवत पन्द्रह से छे गमें, गुनहत्तरि ताऊपर भने भादों वदि पंचमीवार, सोम नवितु रेवती सार ॥ ग्वालियर के तोमर - हरिहरनिवास द्विवेदी पृ० 63 1 41. पूर्वोक्त, पृ० 203 – 41
40.
विधिना विधि ऐसे हुई सोई भई जु आई । चन्द्रप्रभू के थोहरें रहे गौस सुख पाई ॥
इस बीच तातार खां दुर्ग में ही छिपा रहा और जैसे ही बाबर दिल्ली का मम्राट बना, तातार खां ने उसे गुप्त संदेश भेजकर उससे सहायता प्राप्त की और मोहम्मद गौस साहब की कृपा से ख्वाजा रहीम और शेख गोरन के नेतृत्व में विशाल सेना से दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने आधिपत्य में ले लिया और महाराजा रामसिंह तोमर मेवाड़ की ओर भाग गये । इस प्रकार सन् 1559 में दुर्ग पुनः मुगलों के हाथ में चला गया। उधर विक्रमादित्य पानीपत युद्ध में वीरगति पा गये । इसी के साथ ही तोमर वंश का सूर्य सदा के लिये अस्त हो गया । इसके साथ-साथ ही धार्मिक, साहित्यिक एवं
३५३
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कलात्मक गतिविधियां समाप्त हो गई। विक्रमादित्य उरवा बुरा स्थान नहीं है। यह बन्द स्थान है। का परिबार अब हुमायू' के अधीन हो गया। उसकी मूर्तियां ही इस स्थान का सबसे बड़ा देष है । मैंने उनके सदभावना पाने के उद्देश्य से उन्होंने तँवरों द्वारा मांडू नष्ट करने का आदेश दे दिया। . के सुल्तानों पर प्राप्त विजय की निशानी रत्नों का सरताज (कोहिनूर) नामक विश्वप्रसिद्ध हीरा हुमायू
उरवा से निकलकर हम पुनः किले में प्रविष्ट हुए। को भेंट कर दिया।
हमने सुल्तानी पुल की खिड़की से सैर की। यह
काफिरों के समय से अभी तक बन्द रही होगी। हम लोग मुगलों का पूर्ण अधिकार हो जाने के बाद जब सायंकाल की नमाज के समय रहीमदाद के वगीचे बादशाह बाबर स्वयं ग्वालियर आया तब इस दुर्ग का में पहुंचे। वहीं ठहर कर हम सो गए। हम लोगों ने अवलोकन करते समय सन् 1527 में उसकी दृष्टि इस बगीचे से प्रस्थान करके ग्वालियर के मन्दिरों की दुर्ग पर स्थित जैन मूर्तियों पर भी पड़ी।
सैर की। कुछ मन्दिरों में दो-दो और कुछ में तीन-तीन
मंजिलें थीं। प्रत्येक मंजिल प्राचीन प्रथानुसार नीचीबाबर ने "बाबरनामा" में अपनी ग्वालियर यात्रा
नीची थीं। उनके पत्थर के स्तम्भ के नीचे की चौकी पर (28 सितम्बर 1528 ई.) का वर्णन करते हुए
पत्थर की मूर्तियां रखी थीं । कुछ मन्दिर मदरसों के लिखा है:-42
समान थे। उनमें दालान तथा ऊचे गुम्बज एवं मदरसों इस बाहरी दीवार के नीचे तथा बाहर एक बहत बडी के कमरों के समान कमरे थे। प्रत्येक कमरे के ऊपर झील है। यह (कभी-कभी) इतनी सूख जाती है कि पत्थ
पत्थर के तराशे हए सकरे गूम्बज थे। नीचे की कोठरियों झील नही रह पाती। इसमें से आव दुन्द जल संग्रह) में चट्टान से तराशी हुई मूर्तियां थीं, ज्ञात होता है कि में जल जाता है। उरवा के भीतर दो अन्य झीलें हैं। ये आजन हुमायू' के घेरे के समय अपूज्य और भष्ट कर किले के निवासी इनके जल को सबसे अधिक उत्तम दिये गए थे; और फिर बावर के वंशजों के अधिकारियों समझते हैं।
ने इन्हें तुड़वा दिया।
उरवा के तीन ओर ठोस चट्टानें हैं। इनका रंग एक जनश्रुति के अनुसार कहा जाता है कि एक वयाना की ठोस चट्टानों के समान नहीं है, अपितु रात्रि को वह और उसके सैनिक इतने विशाल आकार फीका-फीका है। इन दिशाओं में लोगों ने पत्थर की दिगम्बर जैन मतियों को देखकर चकित एवं भयकी मूर्तियां कटवा रखी हैं। वे छोटी-बड़ी सभी प्रकार भीत हो गये । उसके क्रोध की सीमा न रही। वह जैन की हैं। एक बहुत बड़ी मूर्ति, जो कि दक्षिण की ओर धर्म से इतना क्र द्ध हुआ कि अगले दिवस ही उसने है, सम्भवतः 20 कारी ऊंची होगी। यह मूर्तियां पूर्णतः अपनी सेना को दुर्ग पर स्थित सभी मूर्तियों को समल नग्न हैं और गुप्त अंग भी ढके हुए नहीं हैं। उरवा की रूप से नष्ट कर देने का आदेश प्रदान किया परन्तु यह इन दोनों बड़ी झीलों के चारों ओर 20-30 कूए भी कोई आसान कार्य नहीं था अतः मुगल सैनिक प्रतिखुदे हैं । इनके जल से तरकारियां, फूल तथा वृक्ष माओं को समूल रूप से नष्ट न कर सके, उन्हें खण्डित लगाए जाते हैं।
कर गये। और इस प्रकार कुशल कारीगरों की 33
42. ग्वालियर के तोमर-श्री हरिहर निवास द्विवेदी, पृ० 358
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वर्षों के कठिन परिश्रम से बनी मतियों के सौन्दर्य को चन्द्रप्रभू के मन्दिर में जहाँ शेख की खानकाह थी उन्हें कुछ ही दिवसों में नष्ट कर दिया गया । क्र र बाबर ने दफना दिया गया; और वहीं उतका मकबरा वना इस कृत्य का अपनी आत्मकथा (बाबरनामा) में बड़े दिया गया । गौरव के साथ उल्लेख किया है। इस प्रकार यदि सच पछा जाये तो इस सारी घटना में जैन ही उसके सर्वा
उसके बाद लगभग 200 वर्षों तक ग्वालियर पर धिक कोपभाजन रहे। इस थोड़े काल में उसने दुर्ग पर
मुगलों का ही अधिकार रहा। इस कार्यकाल में दुर्ग का स्थित इन मूर्तियों को ध्वस्त करने के अतिरिक्त नगरों
प्रयोग केवल बंदी गृह के रूप में ही किया गया मुगल
शासकों द्वारा अनेकों ऐसे शहजादे, जागीरदार, बड़े में स्थित मन्दिरों को भी ध्वस्त किया, जहाँ उनको यह संभव न दिखा वहाँ मतियों और वेदियों को ही नष्ट
सरदार तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति जिन्हें जनता के समक्ष कर अपनी सन्तुष्टि कर ली।
मृत्यु दण्ड देना अहितकर प्रतीत होता था, इस दुर्ग में
लाये जाने लगे। यहां उन्हें या तो मन्द जहर दे दिया परन्तु बाबर भी अधिक काल तक इस दुर्ग को
जाता था या ऐसी यातनायें दी जाती थीं जिनसे वह उपभोग न कर सका और सन् 1540 में यह दुर्ग
पागल होकर स्वयं प्राणान्त कर लेते थे। इस तरह मुगलों के हाथ से निकलकर शेरशाह सूरी के हाथों में
विभिन्न क्षेत्रों से लाये गये राज विद्रोही हाथी पोल से आ गया। उन्होंने इसे राजधानी के रूप में प्रयोग
चढ़ाकर किले में लाये जाते थे और फिर वे संसार के किया। और यहां से बे शेष राज्य पर शासन करते ।
दर्शन करने के लिये कभी नहीं लौटते थे। रहे। सन् 1559 ई. में अकबर ने सरी वंश को
अकबर की मृत्यु के बाद जब जहांगीर दिल्ली के नष्टकर ग्वालियर को अपने अधिकार में ले लिया।
तख्त पर बैठा तब यह दुर्ग उसके अधिकार में आ गया।
उसने लिखा है कि तख्त पर बैठने के अवसर पर उसने इस बीच शेख मोहम्मद गौम ग्वालियर में महत्त्व
मुगल साम्राज्य के समस्त कैदियों को बन्दीगृह से मुक्त पूर्ण व्यक्ति बने रहे । ग्वालियर दुर्ग पर मुगल राजाओं
करने की आज्ञा दी। उस समय ग्वालियर दुर्ग से 7 हजार का अधिकार कराने और हर संकट के समय उन्हें मार्ग
कैदी छोड़े गये। उनमें कई लोगों की आय 40 वर्ष के दर्शन व सहायता प्रदान कर अनके राज्य को स्थायी
लगभग थी। परन्तु बाद में बादशाह जहांगीर ने भी बनाने में शेख गौस ने प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया।
इस दुर्ग को बन्दीगृह के रूप में ही प्रयोग किया। इस कारण विभिन्न मुगल शासकों बाबर, हुमायू और अकबर की नजर में वे सदैव सम्मानीय व्यक्ति बने रहे। जहांगीर के ही शासनकाल में एक बार भट्रारक ब्रजग्वालियर दुर्ग पर नियुक्त मुगल अधिकारी भी उनसे भूषण के शिष्य पदमावती पुरवाल वंशज, टापू निवासी अत्याधिक प्रभावित रहे । हिजरी सन् 970 (सोमवार श्री ब्रह्मगुलाल जी मुनि होने के बाद भ्रमण करते हये 10 मई 1563 ई.) को आगरा में शेख मोहम्मद गौस।
थे। सन् 1618 ई. में इन्होंने यहां पर "त्रेपन क्रिया"
43. ग्वालियर के तोमर, हरिहर निवास द्विवेदी पृ. 209 । 44. अगरचन्द नाहटा--- मध्य प्रदेश के कवि 'ब्रह्मगुलाल"
मध्यभारत सदेश, 31 दिसम्बर 1955
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नामक ग्रन्थ की रचना की । इसमें श्रावकों की त्रेपन क्रियाओं का सरल व सुन्दर भाषा में वर्णन किया गया है। इसके अन्त में वे लिखते हैं कि
ए त्रेपन विधि करह किया भव पाप समूहन चूरे हो सोरह से पैंसठ समच्छर कार्तिक तीज अन्धियारी हो । भट्टारक जगभूषण चेला ब्रह्मगुलाल बिचारी हो । ब्रह्मगुलाल विचारि बनाई गढ़ गोपाचल थाने । छत्रपति बहु चक विराजे साहे सलेम मुग लाने ॥ 1 ॥
जहांगीर के बाद औरंगजेब उसका उत्तराधिकारी बना। उसने भी इस दुर्ग को बन्दीगृह के रूप में प्रयोग किया अपने भाई मुराद को उसने इसी दुर्ग में बन्दी बनाया था। दारा के पुत्र सुलेमान शिको को भी इसी दुर्ग में कैद रखा गया। अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद को भी औरंगजेव ने यहीं कैद रखा। मुराद को फांसी भी इसी दुर्ग में दी गई। इन सब कारणों से ग्वालियर का किला मृत्यु का द्वार कहा जाने लगा।
इस प्रकार दो शताद्वियों के इस काल में ग्वालियर दुर्ग बन्दी घर के रूप में ही प्रयुक्त होता रहा। नगर क्षेत्र तथा उसके विकास के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया गया और बादशाह के द्वारा नियुक्त नुमायन्दे ही राज्य की देखभाल करते रहे। इस काल में जैनियों की दशा के बारे में कुछ भी लेख आदि नहीं मिलते हैं । संभवत: इस काल में शासन की विरोधी नीति के कारण जैनियों की क्या, भारतीय मूलों के सभी धर्मो की दशा अच्छी नहीं थी। इस काल में अनेकों हिन्दू शासकों के कृपा पात्र बनने के उद्देश्य से या तो स्वयं मुसलमान हो गये या जबरदस्ती मुसलमान धर्म में दीक्षित कर दिये गये। शासकों द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता का खुलकर हनन किया गया। इस प्रकार राष्ट्रीय संरक्षण समाप्त होना और धर्म पालन पर प्रतिबंध ही इसके मूल कारण रहे ।
तथापि इतने सबके बाबजूद भी जैन धर्मावलंबियों की गतिविधियां पूर्णतः समाप्त न की जा सकीं। यदा
कदा अवसर प्राप्त होने पर जैन धर्मावलम्बी अपनी धार्मिक गतिविधियों को संचालित करते रहे । दौलतगंज में बना हुआ पार्श्वनाथ मन्दिर लगभग इसी काल में निर्मित हुआ । इसके अतिरिक्त अन्य किसी मन्दिर आदि के निर्माण के संबंध में कोई विवरण प्राप्त नहीं है ।
इधर 18वीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध के प्रारंभ से ही मरठे लोग अत्याधिक शक्तिशाली हो उठे और दिल्ली तक हमले करने लगे। बाजीराव पेशवा ने राणोजी सिन्धिया को मालवा राज्य की कमान सौंप दी। उन्होंने उत्तर भारत में राज्य विस्तार करने का अभियान प्रारंभ कर दिया। और ग्वालियर को इसका केन्द्र बनाया । राणोजी की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र जयप्पा और माधोजी ने उनका कार्यभार सँभाला। इसी बीच सुन 1761 में पानीपत में युद्ध विभीषिका प्रज्वलित हो उठी और भारत भर में विभिन्न पक्षों के वीरों की तलवारें खिंच गई। माधव जी इसमें घायल हो गये। इस बीच भरतपुर के जाटों ने लोकेन्द्र सिंह के चाचा के नेतृत्व में दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उधर उत्तर भारत का और भी तमाम भाग मराठों के हाथ से निकल चुका था। पर शीघ्र ही पानीपत से लौटकर मराठा वीरों ने महादजी के नेतृत्व में पुनः उत्तर भारत में विजय अभियान प्रारंभ कर दिया और ग्वालियर दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया । इन्होंने इसे फौजी केन्द्र के रूप में प्रयोग करने के उद्देश्य से ग्वालियर दुर्ग के दक्षिण में 1 लाख सैनिकों की बड़ी फौजी छावनी का कैम्प लगाया और इसे लश्कर नाम दिया।
युद्ध के इस वातावरण के मध्य भी धर्मिक गतिविधियां यदाकदा संचालित होती रहीं। सन् 1768 के लगभग सेठ मथुरादास लक्ष्मीचन्द्र जी अग्रवाल द्वारा लश्कर क्षेत्र में अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर पुरानी सहेली का निर्माण कराया गया। इस काल में ही एक अन्य भव्य एवं कलात्मक मन्दिर श्री दिगम्बर जैन मन्दिर चम्पाबाग का निर्माण कार्य
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सम्पन्न हआ। ये दोनों मन्दिर वर्तमान में ग्वालियर में दूर स्थित बानोड़ी नामक ग्राम में इनका देहान्त उपलब्ध जैन मन्दिरों में कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय हैं। हो गया।
इन दिनों ग्वालियर में महादजी का अधिकार था। इनके कोई पुत्र न था अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् उन्होंने उज्जैन को अपनी राजधानी के रूप में प्रयोग तुकोजीराव के 14 वर्षीय पुत्र आनंदराव इनके उत्तराकिया। यह बड़े प्रतापी शासक थे । इनका सारा जीवन धिकारी बनाये गये और उनका नाम दौलतराव रखा युद्धों में बीता । जिसमें इन्होंने उत्तर में एक बड़े भाग पर गया। कार्यमार सँभालने के एक वर्ष बाद ही इन्हें अधिकार कर लिया और यह कलकत्ते के समान एक निजाम से युद्ध करना पड़ा जिसमें ये विजयी हये और महत्वपूर्ण स्थान बन गया । दिल्ली के शासक भी इसके इन्हें करोड़ों रुपयों का लाभ हआ। इसके बाद ये अन्य आश्रय को उत्सुक रहते थे। वारेन हेस्टिग्ज इस बढ़ती राजाओं के सहयोग से कार्य चलाते रहे। किन्त इन्हीं शक्ति को सहन न कर सका और 3 अगस्त दिनों उत्तर भारत में फिर से अशान्ति फैल गई । अतः सन् 1760 को आधी रात के समय किले की पश्चिमी महाराजा दौलतराव पुना से उत्तर भारत की ओर आये। दीवार से चढ़-कर उसने अपनी फौजों को दुर्ग में रास्ते में इन्होंने इन्दौर के होल्कर राजा को परास्त कर प्रविष्ट करा दिया। दुर्ग का यह भाग अभी भी फिरंगी उनके राज्य को खूब लूटा । परन्तु अन्त में आपको अंग्रेजों पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार दुर्ग अंग्रेजों के से युद्ध करना पड़ा। इस लड़ाई में दक्षिण भारत में हाथ में चला गया। 13 अक्टूबर सन् 1781 को पुनः स्थित अहमदनगर, और अशीदगढ़ के बड़े-बड़े किले इनके एक संधि में यह दुर्ग राणा लोकेन्द्र सिंह को मिला। हाथ से निकल गये । इधर उत्तर भारत में भी लार्ड लेक
ने धावा बोल दिया। जिसमें दिल्ली, अलीगढ़, मथुरा लगभग इसी काल में ग्वालियर नगर में "जती जी
और आगरा के इलाके इनके हाथ से जाते रहे । सन् के मन्दिर" के नाम से जाने वाले मन्दिर का निर्माण
1802 में ग्वालियर दुर्ग भी इनके हाथ से चला गया। हुआ। इससे प्रतीत होता है कि अशान्ति के इस वाता
इनके अधिकांश सैनिक युद्ध में काम आ चुके थे। और वरण में भी मन्दिरों आदि का निर्माण कार्य होता रहता
कोई रास्ता न देखकर इन्हें सन् 1805 में मजबूरी में था ।
अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें इन्हें ग्वालियर और सन 1783 में सिन्धिया शासकों ने अंग्रेजों की आसपास का क्षेत्र वापिस कर दिया गया। सन् 1812 मदद प्राप्त कर एक पहरेदार की सहायता से इस दुर्ग में में इन्होंने अपने पिताजी द्वारा स्थापित फौजी कैम्पवाले पुनः प्रवेश किया। राणा को मालूम पड़ते ही उसने मैदान लश्कर पर पुनः छावनी डाली। सन् 1812 में गुलामी से बचने के लिये आत्महत्या कर ली। इस बीच यहां नगर बसाकर इसी को ग्वालियर राज्य की महादजी ने लश्कर नामक फौजी छावनी के पास एक राजधानी बनाया तथा इसका नाम लश्कर ही रखा। बाड़ा कचहरी भी स्थापित की। जिसमें वे युद्धों से अवकाश निकालकर प्रशासन एवं न्याय का कार्य
कहा जाता है कि इसी फौजी छावनी में एक जैन
ओवरसियर भी कार्य करते थे। जब मुरार में छावनी देखते थे।
स्थापित की गई तो वे वहाँ रहने लगे । इनकी मां बड़ी वे दक्षिण के राज्य को भी इसी राज्य में मिलाकर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं तथा नित्यप्रति दर्शन करने के एक बड़ा हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहते थे। इसी पश्चात् ही अन्न ग्रहण करती थीं । मुरार में मन्दिर न बीच 12 फरवरी सन 1794 ई. को पुना से 2 कोस होने के कारण उन्हें बड़ी परेशानी होती थी और दर्शन
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करने के लिये उन्हें बड़ागांव जाना पड़ता था । अतः उन्होंने अपने पुत्र से मुशर में एक मन्दिर स्थापित करने को कहा। पुत्र ने अपनी माँ की सुविधा की दृष्टि से मुरार में एक कमरे के अन्दर मूर्ति प्रतिष्ठा कराकर मन्दिर की स्थापना की। जो आज अपने बड़े रूप में बना हुआ है । लश्कर में कसेरा ओली में स्थित राजा जी का चैत्यालय भी इसी काल का बना हुआ है।
इस प्रकार इस काल में महाराजा दौलतराव अंग्रेजों के सहयोग से राज्य कार्य चलाते रहे। सन् 1827 में इनका स्वर्गवास हो गया । इनके पश्चात उनकी प्रिय पत्नी ने एक 11 वर्षीय नावालिग लड़के को गोद लिया और उसका नाम जनकोजीराव रखा। उनके युवा होने तक महारानी ने ही राज्य संचालन का कार्य किया । युवा होने पर उन्होंने स्वयं शासन का भार संभाल लिया इनके काल में कोई विशेष घटना घटित नहीं हुई । दिनांक 7 फरवरी 1843 ई. को अल्पायु में ही इनका स्वर्गवास हो गया ।
नया बाजार लश्कर में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर और ग्वालियर नगर में स्थित गोकुलचन्द्र का मन्दिर इन्हीं के काल में निर्मित हुये थे।
महाराजा जनकोजीराव के कैलाशवासी होने पर महारानी ताराबाई ने उनका पुत्र न होने के कारण एक 8 वर्षीय बालक को गोद लिया। उनका नाम जीवाजीराव सिंथिया रखा गया। महाराजा की नाबालिगी में कौन प्रवन्ध करे इस विषय को लेकर सरदारों में खूब झगड़े हुये अंग्रेजों ने मौके का फायदा उठाकर सन् 1845 में एक 6 सदस्यीय कौंसिल आफ रिजेन्सी कायम कर दी। 9 वर्ष तक राज्य का सारा प्रबंध इसी कौसिल ने किया। इस कौंसिल के शासनकाल में सन् 1848 में लश्कर में दानाओली में जैसवाल पंचायत द्वारा मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ 1
सन् 1854 में महाराजा के बालिग होने पर वे स्वयं अंग्रेजों के मार्गदर्शन में कार्य करने लगे 3 वर्ष पश्चात्
ही सन् 1857 में भारत के राष्ट्रभक्त वीरों द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ दिया गया। महाराजा अंग्रेजों के परमभक्त थे । अतः इस अवसर को अंग्रेजों को प्रसन्न करने के लिये उपयुक्त समय मानकर उन्होंने अपनी भक्ति भावना का पूर्ण परिचय देने का संकल्प किया । परिणाम यह हुआ कि 28 मई को स्वतन्त्रता प्रेमी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उधर महाराजा अँग्रेजों की सुरक्षा का प्रबंध करने में जी जान लगाकर जुट गये । परन्तु समूह एक शक्ति होती है। 14 जून 1857 की रात्रि को कन्टिन्जेन्ट फौज ने भी राष्ट्रप्रेमियों के समर्थन में विद्रोह कर दिया। अनेकों अँग्रेज अफसर मौत के घाट उतार दिये गये । महाराजा ने अपनी भक्ति का परिचय देते हुये शेष सभी जीवित अंग्रेज पुरुषों को महिलाओं व बच्चों सहित आगरा पहुँचा दिया । दिनांक 28 मई सन् 1858 ई. को नाना पेशवा, तात्या टोपे और महारानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में स्वातंत्र्य वीरों की सेना राष्ट्रद्रोहियों को खूदती हुई ग्वालियर की छाती पर चढ़ आई और 1 जून से भयंकर रूप में युद्ध शुरू कर दिया । ग्वालियर के सारे राष्ट्रप्रेमी स्वातन्त्र वीरों ने उनका साथ दिया जिससे भयभीत होकर जियाजीराव युद्ध: स्थल से भाग खड़े हुये और अंग्रेजों की शरण में आगरा आ पहुँचे ।
इधर स्वातंत्र वीरों ने सभी शासकीय केन्द्रों पर कब्जा कर लिया और ग्वालियर पर अपने झंडे गाड दिये । गोरखी में स्थित शासकीय खजाने को लूट लिया गया। इस समय अमरचन्द्र वांठिया नामक एक जैन धर्मावलंबी महाराजा के खजांची थे। लूट के समय वे वहीं मौजूद थे । उन्होंने स्वातंत्र्य वीरों का कोई प्रतिकार नहीं किया । उन्होंने खुलकर लूट की और सारा खजाना लूट लिया। वीर पुत्रों का संरक्षण पा ग्वालि यर की भूमि निहाल हो उठी।
परन्तु दूसरी ओर सर ह्य ू रोज ने वीरों से अनुपात में कई गुनी सेना लाकर उन्हें चारों ओर से पैर लिया।
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दिनांक 18 जून को भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें अनेकों वीरों सहित वीरांगना लक्ष्मीबाई भी शहीद हुई । अवसर पाकर अँग्रेज पुनः सत्तारूढ़ हो गये । शान्ति स्थापित होने पर महाराजा जयाजीराव सिन्धिया भी ग्वालियर वापिस लौट आये । ग्वालियर आने के पश्चात् उन्होंने स्वातंत्र्य प्रेमी निवासियों को दण्ड देने का अभियान चालू किया। जिसका सर्वप्रथम शिकार ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष ओसवाल जैनवंशी श्री अमरचन्द्र वांठिया बनाये गये और उन्हें महारानी लक्ष्मीबाई आदि से मिलकर शासकीय खजाने की लूट करवाने के आरोप में मृत्यु दण्ड देने का आदेश दिया । भविष्य में अन्य नगरवासी कभी इस प्रकार का कृत्य न कर सकें अतः उन्हें भयमीत करने के उद्देश्य से अमरचन्द्र वाडिया को सराफा बाजार में स्थित एक विशाल नीम के वृक्ष पर लटकाकर फांसी दी गई। शहीद का मृत शरीर 3 दिवस तक नीम पर ही टंगा रखा गया। जिससे अन्य नगरवासी भविष्य में कभी इस प्रकार का कार्य करने का साहस न करें। यह वृक्ष अभी भी खूनी नीम के नाम से प्रसिद्ध है ।
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बाद में महाराजा जयाजीराव सिन्धिया के इन भक्तिपूर्ण कृत्यों से प्रसन्न होकर दिनांक 30 नवम्बर को आगरा में एक समारोह आयोजित कर गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने पुराने ग्वालियर राज्य में तीन लाख रुपये का राज्य और शामिल कर उन्हें पुनः औपचारिक रूप से राज्यभार सौंपते हुए अँग्रेजों की भक्ति के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और साथ ही महाराजा के और बकाया लाखों रुपये की रकम भी छोड़ दी । उन्हें अनेकों उत्कृष्ट पदवियों से विभूषित कर ब्रिटिश सेना का आनरेरी जनरल नियुक्त किया। परन्तु दुर्ग पर अभी भी अंगेजों का ही आधिपत्य रहा। महाराजा द्वारा अनेकों बार याचना करने पर सन् 1886 में पुन: यह दुर्गं सिन्धिया राजवंश को प्रदान कर दिया गया। महाराजा अपने सारे राज्यकाल में अंग्रेजों को प्रसन्न करने व स्वामिभक्ति का परिचय देने में ही लगे
रहे और अंग्रेज यदा-कदा उन्हें खुश रखने के लिये सम्मानित करते रहे ।
इनके काल में अशान्तिपूर्ण वातावरण होते हुये भी हुये। सन् 1864 अनेकों मन्दिर आदि के निर्माण कार्य संपन्न के लगभग रामकुई पर नसियां जी के मन्दिर की स्था पना हुई। लगभग 1 वर्ष बाद ही छत्री बाजार स्थित मन्दिर का निर्माण हुआ। ग्वालियर में खच्चाराम मुहल्ला में स्थित मन्दिर भी इसी काल का बना हुआ है । सन् 1878 में मामा के बाजार में भी एक जैन मन्दिर का निर्माण कार्य संपन्न कराया गया।
सन् 1885 के लगभग महाराजा को जलोधर रोग हो गया जिसकी पीड़ा से परेशान होकर वे दिल बहलाने के उद्देश्य से यात्रा पर भी गये परन्तु दिनांक 20 जून 1886 के दिन बड़े कष्टपूर्वक उनका प्राणांत हो गया।
इनकी मृत्यु के समय इनके पुत्र माधवराव केवल दस वर्ष के ही थे । परन्तु परम्परा के अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चत् उनका ही राज्याभिषेक कर दिया गया । अवयस्कता के काल में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त एक कौसिल द्वारा सरदारों और अधिकारियों के सहयोग से राज्य कार्य का संचालन किया गया ।
सन् 1888 में मामा के बाजार में एक दिगम्बर तथा सन् 1893 में सराफा बाजार में एक श्वेताम्बर जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। इनमें सराफा बाजार श्वेताम्बर मन्दिर अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक है ।
दिनांक 15 दिसम्बर 1894 के दिन इस क्षेत्र के गवर्नर जनरल ने एक समारोह में 30 हजार वर्ग मील में फैले 32 लाख की आबादी और डेढ़ करोड़ की आयवाले तत्कालीन ग्वालियर के शासन का कार्यभार माधवराव सिंधिया को सौंप दिया।
अँग्रेजों का संरक्षण होने के कारण ये सारे शासनकाल में युद्ध आदि के भय से निश्चिन्त रहे। अतः प्रजा
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________________ के लाभ के कार्यों में अपना काफी समय दिया। इनके जेलयात्रा भी की। 30 अप्रैल 1938 को विदिशा के काल में क्षेत्र के सर्वांगीण विकास की ओर काफी ध्यान प्रसिद्ध अभिभाषक श्री तख्तमल जैन के सद्प्रयत्नों से दिया गया। आपने सभी धर्मों को प्रगति का समुचित ग्वालियर में सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई जो बाद अवसर दिया। वे स्वयं सभी धर्मों के विशेष उत्सवों में में ग्वालियर स्टेट कांग्रेस में परिवर्तित हो गई। इसी भाग लेते थे। क्रम में समाजवादी विचारधारा के श्री भीकमचन्द जैन ने भी राजनीतिक एव जन-जागरण आन्दोलनों में एवं इनके शासनकाल में अनेकों जैन मन्दिरों का निर्माण गतिविधियों में सक्रिय एवं उल्लेखनीय भाग लिया। कार्य संपन्न हआ। सन 1903 में मामा के बाजार में इनके अतिरिक्त अन्य कई जैन धर्मावलंबियों ने भी जो भी , एक और जैन मन्दिर का निर्माण कराया गया, जो बड़ा ग्वालियर के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास में मन्दिर मामा के बाजार के नाम से जाना जाता है / गतिशील योगदान दिया। - माधवराव सिंधिया के काल में राज्य में अनेकों इस प्रकार ग्वालियर के सांस्कृतिक विकास में जैनों विकास कार्यक्रम संचालित हुए। इस बीच सम्पूर्ण देश में ने अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की है। ग्वालियर कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता के इतिहास, साहित्य एवं पुरातत्व का एक बड़ा भाग आन्दोलन की लहर ने देशी राज्यों में भी जन जागृति को जैनों से प्रभावित रहा है / आज इस सम्बन्ध में जो भी प्रोत्साहित किया। ग्वालियर भी इससे अछूता न रहा। साहित्यादि प्रमाण उपलब्ध हैं, उनकी रक्षा में भी जैनों गांधीजी के विचारों में अहिंसा की प्रधानता ने जैनों को ने अत्याधिक महत्वपूर्ण योग दिया है, उनके इस गण के. सर्वाधिक आकिषत किया। ग्वालियर में 1917 ई. में कारण सुरक्षित साधनों ने ही आज ग्वालियर के इतिश्री श्यामलाल पाण्डवीय ने ग्वालियर राज्य में "गल्प- हास के उपलब्ध ज्ञान को उजागर किया है, तथापि आज पत्रिका" के नाम से सर्वप्रथम समाचार-पत्र प्रकाशित भी इसके बहुत से पक्ष लुप्त हैं, जिन्हें उजागर करने को कर पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति में प्रवेश किया। पर्याप्त शोध की आवश्यकता है। अपने उग्र विचारों के कारण वे कई बार दण्डित हए व .