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नामक ग्रन्थ की रचना की । इसमें श्रावकों की त्रेपन क्रियाओं का सरल व सुन्दर भाषा में वर्णन किया गया है। इसके अन्त में वे लिखते हैं कि
ए त्रेपन विधि करह किया भव पाप समूहन चूरे हो सोरह से पैंसठ समच्छर कार्तिक तीज अन्धियारी हो । भट्टारक जगभूषण चेला ब्रह्मगुलाल बिचारी हो । ब्रह्मगुलाल विचारि बनाई गढ़ गोपाचल थाने । छत्रपति बहु चक विराजे साहे सलेम मुग लाने ॥ 1 ॥
जहांगीर के बाद औरंगजेब उसका उत्तराधिकारी बना। उसने भी इस दुर्ग को बन्दीगृह के रूप में प्रयोग किया अपने भाई मुराद को उसने इसी दुर्ग में बन्दी बनाया था। दारा के पुत्र सुलेमान शिको को भी इसी दुर्ग में कैद रखा गया। अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद को भी औरंगजेव ने यहीं कैद रखा। मुराद को फांसी भी इसी दुर्ग में दी गई। इन सब कारणों से ग्वालियर का किला मृत्यु का द्वार कहा जाने लगा।
इस प्रकार दो शताद्वियों के इस काल में ग्वालियर दुर्ग बन्दी घर के रूप में ही प्रयुक्त होता रहा। नगर क्षेत्र तथा उसके विकास के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया गया और बादशाह के द्वारा नियुक्त नुमायन्दे ही राज्य की देखभाल करते रहे। इस काल में जैनियों की दशा के बारे में कुछ भी लेख आदि नहीं मिलते हैं । संभवत: इस काल में शासन की विरोधी नीति के कारण जैनियों की क्या, भारतीय मूलों के सभी धर्मो की दशा अच्छी नहीं थी। इस काल में अनेकों हिन्दू शासकों के कृपा पात्र बनने के उद्देश्य से या तो स्वयं मुसलमान हो गये या जबरदस्ती मुसलमान धर्म में दीक्षित कर दिये गये। शासकों द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता का खुलकर हनन किया गया। इस प्रकार राष्ट्रीय संरक्षण समाप्त होना और धर्म पालन पर प्रतिबंध ही इसके मूल कारण रहे ।
तथापि इतने सबके बाबजूद भी जैन धर्मावलंबियों की गतिविधियां पूर्णतः समाप्त न की जा सकीं। यदा
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कदा अवसर प्राप्त होने पर जैन धर्मावलम्बी अपनी धार्मिक गतिविधियों को संचालित करते रहे । दौलतगंज में बना हुआ पार्श्वनाथ मन्दिर लगभग इसी काल में निर्मित हुआ । इसके अतिरिक्त अन्य किसी मन्दिर आदि के निर्माण के संबंध में कोई विवरण प्राप्त नहीं है ।
इधर 18वीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध के प्रारंभ से ही मरठे लोग अत्याधिक शक्तिशाली हो उठे और दिल्ली तक हमले करने लगे। बाजीराव पेशवा ने राणोजी सिन्धिया को मालवा राज्य की कमान सौंप दी। उन्होंने उत्तर भारत में राज्य विस्तार करने का अभियान प्रारंभ कर दिया। और ग्वालियर को इसका केन्द्र बनाया । राणोजी की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र जयप्पा और माधोजी ने उनका कार्यभार सँभाला। इसी बीच सुन 1761 में पानीपत में युद्ध विभीषिका प्रज्वलित हो उठी और भारत भर में विभिन्न पक्षों के वीरों की तलवारें खिंच गई। माधव जी इसमें घायल हो गये। इस बीच भरतपुर के जाटों ने लोकेन्द्र सिंह के चाचा के नेतृत्व में दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उधर उत्तर भारत का और भी तमाम भाग मराठों के हाथ से निकल चुका था। पर शीघ्र ही पानीपत से लौटकर मराठा वीरों ने महादजी के नेतृत्व में पुनः उत्तर भारत में विजय अभियान प्रारंभ कर दिया और ग्वालियर दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया । इन्होंने इसे फौजी केन्द्र के रूप में प्रयोग करने के उद्देश्य से ग्वालियर दुर्ग के दक्षिण में 1 लाख सैनिकों की बड़ी फौजी छावनी का कैम्प लगाया और इसे लश्कर नाम दिया।
युद्ध के इस वातावरण के मध्य भी धर्मिक गतिविधियां यदाकदा संचालित होती रहीं। सन् 1768 के लगभग सेठ मथुरादास लक्ष्मीचन्द्र जी अग्रवाल द्वारा लश्कर क्षेत्र में अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर पुरानी सहेली का निर्माण कराया गया। इस काल में ही एक अन्य भव्य एवं कलात्मक मन्दिर श्री दिगम्बर जैन मन्दिर चम्पाबाग का निर्माण कार्य
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