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दिनांक 18 जून को भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें अनेकों वीरों सहित वीरांगना लक्ष्मीबाई भी शहीद हुई । अवसर पाकर अँग्रेज पुनः सत्तारूढ़ हो गये । शान्ति स्थापित होने पर महाराजा जयाजीराव सिन्धिया भी ग्वालियर वापिस लौट आये । ग्वालियर आने के पश्चात् उन्होंने स्वातंत्र्य प्रेमी निवासियों को दण्ड देने का अभियान चालू किया। जिसका सर्वप्रथम शिकार ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष ओसवाल जैनवंशी श्री अमरचन्द्र वांठिया बनाये गये और उन्हें महारानी लक्ष्मीबाई आदि से मिलकर शासकीय खजाने की लूट करवाने के आरोप में मृत्यु दण्ड देने का आदेश दिया । भविष्य में अन्य नगरवासी कभी इस प्रकार का कृत्य न कर सकें अतः उन्हें भयमीत करने के उद्देश्य से अमरचन्द्र वाडिया को सराफा बाजार में स्थित एक विशाल नीम के वृक्ष पर लटकाकर फांसी दी गई। शहीद का मृत शरीर 3 दिवस तक नीम पर ही टंगा रखा गया। जिससे अन्य नगरवासी भविष्य में कभी इस प्रकार का कार्य करने का साहस न करें। यह वृक्ष अभी भी खूनी नीम के नाम से प्रसिद्ध है ।
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बाद में महाराजा जयाजीराव सिन्धिया के इन भक्तिपूर्ण कृत्यों से प्रसन्न होकर दिनांक 30 नवम्बर को आगरा में एक समारोह आयोजित कर गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने पुराने ग्वालियर राज्य में तीन लाख रुपये का राज्य और शामिल कर उन्हें पुनः औपचारिक रूप से राज्यभार सौंपते हुए अँग्रेजों की भक्ति के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और साथ ही महाराजा के और बकाया लाखों रुपये की रकम भी छोड़ दी । उन्हें अनेकों उत्कृष्ट पदवियों से विभूषित कर ब्रिटिश सेना का आनरेरी जनरल नियुक्त किया। परन्तु दुर्ग पर अभी भी अंगेजों का ही आधिपत्य रहा। महाराजा द्वारा अनेकों बार याचना करने पर सन् 1886 में पुन: यह दुर्गं सिन्धिया राजवंश को प्रदान कर दिया गया। महाराजा अपने सारे राज्यकाल में अंग्रेजों को प्रसन्न करने व स्वामिभक्ति का परिचय देने में ही लगे
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रहे और अंग्रेज यदा-कदा उन्हें खुश रखने के लिये सम्मानित करते रहे ।
इनके काल में अशान्तिपूर्ण वातावरण होते हुये भी हुये। सन् 1864 अनेकों मन्दिर आदि के निर्माण कार्य संपन्न के लगभग रामकुई पर नसियां जी के मन्दिर की स्था पना हुई। लगभग 1 वर्ष बाद ही छत्री बाजार स्थित मन्दिर का निर्माण हुआ। ग्वालियर में खच्चाराम मुहल्ला में स्थित मन्दिर भी इसी काल का बना हुआ है । सन् 1878 में मामा के बाजार में भी एक जैन मन्दिर का निर्माण कार्य संपन्न कराया गया।
सन् 1885 के लगभग महाराजा को जलोधर रोग हो गया जिसकी पीड़ा से परेशान होकर वे दिल बहलाने के उद्देश्य से यात्रा पर भी गये परन्तु दिनांक 20 जून 1886 के दिन बड़े कष्टपूर्वक उनका प्राणांत हो गया।
इनकी मृत्यु के समय इनके पुत्र माधवराव केवल दस वर्ष के ही थे । परन्तु परम्परा के अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चत् उनका ही राज्याभिषेक कर दिया गया । अवयस्कता के काल में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त एक कौसिल द्वारा सरदारों और अधिकारियों के सहयोग से राज्य कार्य का संचालन किया गया ।
सन् 1888 में मामा के बाजार में एक दिगम्बर तथा सन् 1893 में सराफा बाजार में एक श्वेताम्बर जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। इनमें सराफा बाजार श्वेताम्बर मन्दिर अत्यन्त भव्य एवं कलात्मक है ।
दिनांक 15 दिसम्बर 1894 के दिन इस क्षेत्र के गवर्नर जनरल ने एक समारोह में 30 हजार वर्ग मील में फैले 32 लाख की आबादी और डेढ़ करोड़ की आयवाले तत्कालीन ग्वालियर के शासन का कार्यभार माधवराव सिंधिया को सौंप दिया।
अँग्रेजों का संरक्षण होने के कारण ये सारे शासनकाल में युद्ध आदि के भय से निश्चिन्त रहे। अतः प्रजा
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