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________________ दरबार के ही एक अन्य कायस्थ विद्वान पद्मनाभ से भ. गुणकीर्ति के आदेशानुसार " यशोधर चरित्र" (दया सुन्दर विधान ) नामक काव्य की रचना करवाई । इसके शासनकाल की संवत् 1460, 1468, 1469 और 1479 की लिखी हुई चार ग्रन्थलिपि प्रशस्तियां अभी भी उपलब्ध हैं। सं. 1460 में गोपाचल में साहू वरदेव के चैत्यालय में भ. हेमकीर्ति के शिष्य मुनि धर्मचन्द ने माघ वदी दशमी के दिन " सम्यकत्व कौमुदी" की प्रति आत्मपठनार्थ लिपिबद्ध को। सं. 1468 में आषाढ़ वदी 2, शुक्रवार के दिन काष्ठा संघ, माथुरान्वय के आचार्य श्री भावसेन, सहस्त्रकीर्ति और भ. गुणकीर्ति की आम्नाय में साहू मरूदेव की पुत्री देवसरि ने 'पंचास्तिकाय" टीका की प्रतिलिपि लिपिबद्ध कराई थी। जो इस समय कारंजा के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है 120 संवत् 1469 में आचार्य अमृतचन्द कृत प्रवचन सार्थी की "तत्बदीपिका " टीका लिखी गई। सन् 1479 में आषाढ़ सुदी 5 बुधवार के दिन गढ़ोत्पुर के नेमिनाथ चेत्यालय में जौतुका स्त्री सरो ने अपने ज्ञानवर्णी कर्णो के क्षयार्थ " षटकर्मोपदेश" की एक प्रति लिखकर जैत श्री की शिष्या विमलमति को पूजा विधान महोत्सव के साथ समर्पित की थी जिसे पंडित रामचन्द्र ने लिखा था । यह प्रति आमेर के भण्डार में सुरक्षित है । वीरमदेव के पश्चात् उसका पुत्र गणपतिदेव गद्दी पर बैठा । उसका राज्यकाल अत्य रहा, जिसका विवरण उपलब्ध नहीं है । Jain Education International सन् 1424 में गणपतिदेव के पुत्र डूंगरसिंह तंवर गद्दी पर आसीन हुए । यह बड़े ही वीर और पराक्रमी शासक थे । उसने शासन सँभालते ही अपनी सेना संगठित कर मालवे की राजधानी मांडू पर आक्रमण कर वहाँ के राजा हुशंगशाह को परास्त किया। संभवतः इसी विजय में इनके हाथ कोहिनूर नामक विश्वप्रसिद्ध हीरा लगा। इस प्रकार उसने अपने राज्य की सीमा और बढ़ाकर अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली । इसके काल में राज्य में सभी प्रकार की सुख शांति थी । इससे निकटवर्ती राज्यों के शासकों की ललचाई दृष्टि सदैव इसके राज्य पर लगी रहती थी और यदा-कदा ग्वालियर पर आक्रमण होते रहते थे । राजा डूंगरसिंह ने सभी का डटकर मुकाबला किया और सभी में विजयी रहे । विभिन्न लेखकों ने इसकी वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि "वह अनेक राजाओं द्वारा पूजित 19. सम्वत् 1460 शाके 1325 षष्ठाव्दयोर्मध्ये विरोधी नाम संवत्सरे प्रवर्तत गोपाचल दुर्गस्थाने राजा वीरमदेव राज्य प्रवर्तमाने साहु वरदेव चैत्यालये भ. श्री हेमकीर्तिदेव तत्शिष्य मुनि धर्मचन्द्र ेण आत्मपठनार्थ पुस्तकं लिखितं माघ वदि 10 भौमदिने । - तेरापंथी मन्दिर जयपुर, शास्त्र भण्डार 20 संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्य गतान्द 1468 वर्ष आषाढ़ वदि 2 शुक्र दिने श्री गोपाचले राजा वीरमेदेव विजय राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्कर गण आचार्य श्री भावसंनदेवाः तत्पट्टे श्री सहस्त्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे मट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवास्तेषामाम्नाये संघई महाराजवधू साधु मरदेव पुत्री देवसिरी तथा इदं पंत्रास्तिकायसार ग्रंथ लिखापितम् । ३४५ For Private & Personal Use Only - कारंजा भण्डार, जयपुर www.jainelibrary.org
SR No.210470
Book TitleGwalior ke Sanskrutik Vikas me Jain Dham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size3 MB
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