Book Title: Gwalior ke Sanskrutik Vikas me Jain Dham Author(s): Ravindra Malav Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 6
________________ रूप में बने आसन के मध्य पद्मासन के नीचे सामने की ओर तीर्थ कर पद्मप्रभ का लांछन कमल व प्रतिमा के शीर्ष पर ऊष्णस एवं घुंघराले बाल दृष्टव्य हैं । दूसरी प्रमुख प्रतिमा आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की है । कुल साढ़े दस इंच ऊँची इस प्रतिमा में तीर्थ कर मुद्रा मात्र ही साढ़े पाँच इंच ऊँचाई की है । सम्प्रयक में भद्रासन अवस्था में बैठी मुद्रा की इस जिन प्रतिमा के पृष्ठ भाग में नालन्दा जैसी उन्नत कला दर्शनीय है। प्रतिमा के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल कलात्मक स्वरूप लिये हुए है । प्रतीक स्वरूप तीर्थकर चन्द्रप्रभ का लांछन अर्द्धचन्द्र तथा वक्ष के मध्य श्रीवत्स का चिन्ह अंकित है। इनकी शैली के आधार पर सुनिश्चित रूप से इनका निर्माण काल 10-11वीं शती कहा जा सकता है। पपात बदामन ने भी जैन सम्प्रदाय को प्रश्रय दिया था । वि. सं. 1034 ( सन् 977 ई.) में बदामन के राज्यकाल में ग्वालियर में जैन मूर्तियों की स्थापना की गई थी। इस प्रकार यह निश्चित है कि 11वीं शताब्दी में एक जिन मन्दिर तथा कुछ जैन मूर्तियां गोपाचगलढ़ पर निश्चय ही स्थित थीं । कच्छपघात मूलदेव (भुवनै कमल्ल) के राज्य में राज्याधिकारियों ने इस मन्दिर में जैन भक्तों का निर्वाध प्रवेश बन्द कर दिया था। मलधारी गच्छ के श्री अभयदेव सूरि के आग्रह पर महावीर स्वामी के इस मन्दिर के द्वार समस्त जैन जनता के लिये उन्मुक्त कर दिये गए थे। 22 सन् 1844 ई. में जनरल कनिंघम ने ग्वालियर दुर्ग पर स्थित सास-बहू के मन्दिरों के निकट अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में स्थित 35 फुट लम्बे तथा 15 फुट चौड़े खंडहर कमरे के संबंध में किये गये शोषकार्य के आधार पर उसे जैनियों के 23वें तीर्थ कर पार्श्वनाथ का मन्दिर माना है, और इसका निर्माणकार्य सन् 1108 ई. के लगभग सम्पन्न होना माना है। उसके पूर्ण सर्वेक्षण, आसपास किये गये खुदाई के कार्य और स्तम्भों के आधार पर उसका क्षेत्र पीछे 50 फुट और होना बताया है उसके अनुसार यह मन्दिर लगभग 69 फीट लम्बे तथा 15 फीट चौड़े क्षेत्र में फैला था। Jain Education International इसके निर्माण का समय (सन् 1108 ई.) इस बात की साक्षी देता है कि यह मन्दिर कछवाहों के शासन काल में ही निर्मित किया गया। इससे इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि इनके शासन काल में भी जैन अच्छी अवस्था में ये विस्तृत ऐतिहासिक विवरण के अभाव । में यह कहना अत्यंत कठिन है कि किस राजा ने दुर्ग पर इस मन्दिर का निर्माण करवाया अथवा निर्माण हेतु स्वीकृति प्रदान की। इससे भी यह प्रतीत होता है कि इसके भी शताब्दियों पूर्व से जैन इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व रखते थे और शनैः-शनैः वे इतने प्रभावशाली हो गये कि वे शासक एवं शासन को भी प्रभावित कर मन्दिर निर्माण करा सके । इस काल के ग्वालियर के निकटवर्ती क्षेत्रों में भी जैन । मूर्तियों व शिलालेखों का निर्माण हुआ। बकुण्ड ( श्योपुर ) के वि. सं. 1145 (सन् 1088 ई.) के विक्रमसिंह के शिलालेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र के कच्छपघात भी जैन सूरियों को प्रश्रय देते थे । शान्तिषेण सूरि और उनके शिष्य विजयकीर्ति द्वारा वह प्रशस्ति लिखी गयी 11. ग्वालियर राज्य अभिलेख, क्र. 20 । 12. संगीतोपनिषत्सार, गायकवाड़ ओरियन्टल सीरिज, प्रस्तावना, पृष्ठ 7 । ३४२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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