Book Title: Epigraphia Indica Vol 19
Author(s): Hirananda Shastri
Publisher: Archaeological Survey of India

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Page 347
________________ 268 EPIGRAPHIA INDICA. [VOL. XIX. 18 मे (ने) कमतनाग 'घटा विघट्टलब्ध (म्य) प्रसाद विजयं सुमुद (३) धरिची ॥[41] तवापि 14 बजे (वंशे)थ यथार्थनामा जातो यशोभीत इति चितीशः [*] येन प्ररूढोपि 15 शुभैचरित्र्मृष्ट कलङ[ : *] कलिदर्पणस्य ~ ॥[७*] जातोय तस्य तनयः Second Plate; First Side. 16 []ती समस्त सीमन्तिनीनयनषदपुण्डरीकः [*] श्रोसेन्यभोत इति भूमिप 17 तिम्म () हेमकुम्भ स्थलो दलनदुर्ब लिती (ता) सिधारा (रः) n[< n*] काले यैर्भूम धाचीपति[-] 18 भि[रूप]चितानेकपा पावतारे बता (ता) येषां कथापि प्रलयमभिमत [T"] की. 19 [f]मान्तैरजस्त्रं [1] यथेस्तेरश्वमेधप्रस्वतिमिरमरासम्मितास्तु प्रमुख20 सुमारातिपचचयतिपटुना श्रीनिवासेन येन [1] तोतयातापिता21 रर्मरुदिव जनमास्त्रदृष्या यांच) तेजा [:"] (शु) रोमानी दयालुर्नर22 तिरयशोभीतदेवस्तनूजः [] मातङ्गान्योतितुङ्गा (न्य इलमदमुचकर्षत्यखिन: कर्षव्यखियः पुनरपि तयते 23 वारुवक्त्रां (ज्ञान्) प्रचण्डां (ण्डान् ) यत[:] [ स प्र ] - 24 गरुमः ॥ १० ॥] व (ब) ध्वा व (ब)ध्या केचिच्छेलगुहोदरेषु चिच्छेलगु होदरेषु नियता घूमावलीपायिनः अन्धे वायुफला 25 म्बु (म्बु) भक्षनिरता [: *] केचिन्निराहारका [:1 *] इत्थं योगजुषो विहाय वसतिं ध्यायन्ति [दिव्यं] 26 पदं चित्तन्म (चं म) ध्यमराज देवगुणष्टद्राज्येपि तत्प्राप्तवां (वान् ) ॥ [ ११ ॥ * ] तस्याभवत्सकल [था] 27 विशेष धर्मराज इति सूनुरधीतशास्त्र [1] सस्यातिनिर्मलय [मः ] 28 परिवईमान (नं) पादा हरिवनमा (भ) श्रि (शिव) तमार्चि (चि) लोक्या[:] ~ ॥[१२॥*] निराश्रयः प्रयब्रेन 29 गुणेः स परिवारितः [*] वैमुख्यादोर्षया चैव: (व) सव्र्व्वदोषैर्व्विवर्जित[][१०] 1. From the plates published above, Vol. VII, p. 100f, the reading 'नाम' appears to be certain. The reading रি° instead (ante, III, p. 44, 1. 9) would look to be unjustifiable as also the one घटा which is only - इट्ट... [The plate reads narapatirayabobhita, thus showing that the name was Ayasobhita (=one afraid of ill fame) and not Yaśōbhita (= afraid of fame ). In the Pārikud plates also the reading in l. 15 can very well be Ayasabhitae. In line 21, too, scanning shows that one letter is left out between narapati and yafo and that letter is ru.-Ed.] • The Pärikud plates give योगयुगी which has been corrected into योगयुजी. 4 The Pārikud plates read द्राव्यपितप्राप्त बा. Mr. Banerji's correction into पितुः is not warranted. The inten(el reading appears to be ° द्रावयेपि तमाप्तवान्, which is given in our plates. The idea conveyed by the opression seems to be that while others meditated upon it by practising austerities, Madhyamaraja got the दिव्यपद in his own kingdom.

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