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अपने प्रभु का साक्षात्कार
की गड़बड़ी के कारण होती । जिसका जितना मूल्य, उसे उतना मूल्य देना जान जाएं तो जीवन की बहुत सारी समस्याएं अनायास सुलभ जाती हैं । समस्याओं की उलझनों का मूल कारण है मूल्य का अतिक्रमण । यह अतिक्रमण मिट जाए, फिर समस्या ही क्या है ?
दुनिया में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं जो सर्वथा मूल्यहीन हो और ऐसा भी कोई तत्त्व नहीं, जिसका सर्वत्र मूल्य हो । दुनिया में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो सर्व मूल्य की अधिकारी बन सके और ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो मूल्य शून्य हो, जिसका कोई भी मूल्य न हो । अपने स्थान पर सबका मूल्य होता है ।
पूज्य कालूगणी का एक वाक्य बहुत बार चित्त को आन्दोलित करता है। अंतिम अवस्था में, जीवन की संध्या में उन्होंने सब साधुओं को याद किया और कहा – अमुक साधु ने मेरी बहुत सेवा की है । अमुक साधु ने बहुत सेवा की है । कोई छोटा साधु विशेष सेवा न कर सका तो भी उन्होंने कहा - इसने भी कम से कम पार्श्व बदलने में, करवट बदलने में, सहारा दिया है । और कुछ नहीं तो एक झोली भरकर धूली भी लाया है बाहर से । -सेवा का मूल्यांकन, जिसकी जितनी सेवा उसका उतना मूल्यांकन । हमारी समस्या का मूल आधार है कि हम जीवन के कुछ तत्त्वों को ज्यादा मूल्य देते हैं और कुछ तत्त्वों को कम मूल्य देते हैं । यदि मूल्यों का सन्तुलन स्थापित हो जाए तो फिर ध्यान सधता है, साधना स्वयं सिद्ध होती है और जीवन की समस्या स्वयं सुलझती है ।
जीवन के तीन तत्त्वों की कल चर्चा की थी— श्वास, प्राण और चेतना । श्वास का हमारे जीवन में बहुत मूल्य है । प्राण का हमारे जीवन में बहुत -मूल्य है और चेतना का हमारे जीवन में बहुत मूल्य है । मैं नहीं कह सकता कि तीनों का समान मूल्य है । तीनों के मूल्यों में तारतम्य है । उस तारतम्य को ठीक समझ लें और जिसका जितना मूल्य है उसको उतना मूल्य देना जान जाएं तो एक नयी दिशा का उद्घाटन होगा ।
यह स्थिति तब सम्भव हो सकती है, जब हम अन्तर्दृष्टि से जीवन को देख सकें । जीवन को देखने की दो दृष्टियां होती हैं-- एक है बाह्यदृष्टि और दूसरी है आन्तरिक दृष्टि । जब बाह्यदृष्टि से जीवन को देखते हैं तब जीवन की एक दूसरे प्रकार की प्रतिमा उभरती है । जब आन्तरिक दृष्टि से देखते हैं तो जीवन की दूसरे प्रकार की प्रतिमा निर्मित हो जाती है ।
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