Book Title: Ekla Chalo Re
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Tulsi Adhyatma Nidam Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 303
________________ २६२ एकला चलो रे जाता है । 'सव्वसाहूणं', इसमें 'ण' है 'हू' है। अरहंताणं में 'अ' है और 'र' है । अग्नि तत्त्व 'र' और आकाश तत्त्व 'ह'—ये सारे मिलकर मन्त्र को बहुत शक्तिशाली बना देते है। श्रद्धा इस मन्त्र का मूल हार्द है । यह मन्त्र प्रारम्भ होता है 'णमो' से । 'णमो' अहंकार का विसर्जन है। अहंकार के विसर्जन से ही मन्त्र प्रारम्भ होता है, नमस्कार से ही मन्त्र प्रारम्भ होता है। जो व्यक्ति नमन करता है, नमस्कार करता है, समर्पण करता है, वहां अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं होता। साधना के क्षेत्र में जिस व्यक्ति ने अहंकार और ममकार पर विजय नहीं पायी, उसकी साधना एक सांसारिक बन जाती है, मात्र लौकिकता बन जाती है। वह साधना में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। साधना का रहस्य होता है-समर्पण और समर्पण का अर्थ होता है-अहंकार और ममकार का विसर्जन । बहुत सारे लोग समर्पण में उलझ जाते हैं। समर्पण है क्या ? अपने अहंकार का और अपने ममकार का विसर्जन करने का नाम ही समर्पण है। जब तक अहंकार और ममकार होता है, तब तक समर्पण नहीं आता। जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु है मैं नांहि । 'प्रेमगली अति सांकरी, तां में दो न समाहि ।' कबीर ने लिखा है—जब मैं (अहंकार) था तब गुरु नहीं मिला। चाहे आप आचार्य तुलसी को, आचार्य भिक्षु को गुरु माने या चाहे और किसी को गुरु मानें, न आपने आचार्य तुलसी को पहचाना, न आचार्य भिक्षु को पहचाना, न किसी अन्य को पहचाना । तब तक गुरु आपके पास भटकेगा ही नहीं, पास में आएगा ही नहीं। 'पाव कोस पर गांव-गांव तो पाव कोस पर ही था, पर वह उसे ही ढूंढ़ता रहा। पता ही नहीं चला। गुरु तो पास में बैठा है पर मिलता ही नहीं । मिलता कैसे, क्योंकि अहंकार और गुरु दोनों आग और पानी की भांति विरोधी हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते । या तो आग होगी या पानी होगा। यदि अहंकार है तो गुरु नहीं मिलेगा। गुरु आ गया तो मैं (अहंकार) चला गया । वह कैसे टिकेगा ? यह समर्पण की गली इतनी संकरी है, यह पगडंडी इतनी संकरी है कि इसमें दो एक साथ नहीं चल सकते । मैं और गुरु-दोनों को एक साथ चलाना चाहे तो दोनों एक साथ नहीं चल सकते । या तो गुरु को छोड़ना होगा या मैं को छोड़ना होगा। नमस्कार महामन्त्र में सबसे पहले 'मैं' को छोड़ने की बात आती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320