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दिगम्बर जैन
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अंश व सर्व देश पालन व प्रचार करे वहीं श्रम धर्म है । तथा जैनधर्मकी मूल शिक्षा ही "अहिंसा परमो धर्मः" है जिसके महत्वको स्थूल शब्दों द्वारा वर्णन करना असम्भव प्रतीत होता है । जिन महानुभावका स्वागत किया जा रहा है वह इसी श्रेष्ठतम अर्थात् जैन धर्मके अनुयायी यू० पी० जैनसभा के सभासद हैं। जैन धर्मके विषय में मेरा यह विचार है कि प्राचीन समय में चारित्र सभ्यता, विद्या कार्यकुशलता आदि उत्तम गुणोंमें इसके अनुयायि योंसे बढ़कर और कोई मनुष्य नहीं हुए हैं । इसलिए अब यह आवश्यकता नहीं जान पड़ती . कि स्वागत किये जानेवाली सभा या सभासदोंका अधिक समय तक गुणगान किया जाय क्योंकि कस्तूरी स्वयं अपनी सुगंध द्वारा पहिचान ली जाती है ।
चौथी बात सेवक अर्थात स्वागत करनेवालेके स्वरूप व सुभावसे सम्बन्ध रखती है। सो जैन होस्टेल विनीत विद्यार्थियोंका समूह है जो धीमान श्रीमानों घनाढ्योंकी संज्ञा में नहीं आते हैं और जिनका महत्व केवळ विद्यार्थीपन (विद्योपार्जन ) पर ही सीमित है । परन्तु यह सेवक साधारण अशिक्षित विद्यार्थी भी नहीं हैं । इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो इसके निकट पहुंच गये हैं कि बड़े बड़े विद्वज्जनोंकी समामें बराबरीका आसन ग्रहण करें । यह छात्र जैनत्वरंग से पूर्णतया रंगे हुये हैं और उत्साहकी उमंगें इनके दिलों में उठ रही हैं। मुझे विश्वास है कि इनमें से कुछ अवश्य ही अपने समय में प्रभावशाली बुद्धिमत्ता को प्रकट करेंगे । स्वर्गीय
[ वर्ष १७
कुमार देवेन्द्रप्रसादनीके, जिनका सम्बन्ध इस होस्टेल कुछ समय तक रहा है, शुभ और सुभग कार्य कुशलतामयी जीवनीकी छाप इनके कोमल ग्राह्य हृदयपर अंकित है । इनके उत्साहको देखकर स्वर्गीय लाला सुमेरचंद साहबकी धर्मपत्नी श्रीमती झपोळाकुंवरजीने / अपने पतिके स्मरणार्थ बहुतसा धन व्यय करके १॥ वर्ष हुए इस होस्टेलको स्थापित किया और उस समयसे निरन्तर इस प्रयत्न में संलग्न रहती हैं कि इस संस्था तथा यहांके छात्रोंकी, अद्वितीय उन्नति हो जिससे इतने कम सम यमें यह होस्टल सब होस्टकोंकी अपेक्षा प्रसिद्ध हो गया है और इसकी उन्नतिकी प्रशंसा सर्व दर्शकों तथा गवर्नमेंट और विश्व विद्यालयके अधिकारियोंने की है । गवर्नमेंट की सहायता से इसी मास में विजली की रोशनी भी तमाम होस्टे लमें लग गई है । लेक्चर ( व्याख्यान ) का बड़ा हाल और मनोहर जिन चैत्यालय जिसकी वेदीप्रतिष्ठाका उत्सव मनानेके लिये सर्व सज्जन इस समय एकत्रित हुए हैं। इस साल श्रीमती संस्थापिकाजीकी विशेष उदारता और दानश क्तिकी साक्षी है। जिनागममें चार प्रकारके दान कहे गये हैं । विद्या दान इन सबमें श्रेष्ठ है जिसका फल इतना महान है कि वाणी द्वारा | वर्णन नहीं हो सकता है। इसीका एक छोटासा उदाहरण यह जैन होस्टेल आपके समक्ष है । हाँ ! धन्य और कोटिशः धन्य उस दानको है जो पात्रको मूर्खसे ज्ञानी बनावे और मोक्ष लाभके सन्मुख करदे । आशा है कि हमारी पुण्यवान संस्थापिकाजीका अनुकरण हमारे अन्य