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दिगम्बर जैन ।
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प्राणनको विनिपात । द्वेष कहांतें जात ॥३६ भूषण क्षमा पुमान ।
नीतिरत्न - माला - २. सर्वबैरको हेतु है, यातें त्रेधा जिन तनो, लज्जा भूषण पोषिता, भूषण धारण अन्यथा, विधवा बिंदु समान ॥ १७ दान भोग बिन जासदिन, गये जांयगे जांय | तिस धन जीवित इमनि फल, बिंदु अंक विहाय १८ अति परिचयतें मानक्षय, नवगुण पूजित होय | पुत्रे दोयज चंद्रमा, पूर्ण चंद्र नहिं कोय ॥ ३९ जलनिधि वेष्टित भूमिवर, वेष्टित गृह प्राकार । भूपाऽवरणित देश शुभ, लज्जाऽवरणित नार ॥ ४० गुप्त भेद सब मित्रसे, मत कहो नहीं विश्वाप्त । रोषित होय कदापि तौ, सबमें करै प्रकास ॥ ४१ शत्रु सहायक यूथमें, देखो जब सब मेल । सावधान है तब रहो, होय फूट तब केलि ४४ अंतर्कापिका=मोक्षप्राप्तिको पात्रको कौन चेतनावान सप्त तत्वको क्या करें, भव्य जीव सरघान ४ ३ महत्व बढ़नके अर्थ जो, करहैं बाद विवाद | बुद्धिमान विद्वानसे, जानो तिसधी छाद ॥४४ जावो जहां उपदेश हो, धर्मनीति अरु ज्ञान ४१ श्रेष्ठि सभा में बिन कहे, गये होय अपमान | शौर्य रणमें पुरुषको कोष हुवे विद्वान | विपति पंडे पर मित्रकी, स्वतः परष हो आन ॥ ४६ द्रव्य बंधु वय सच्च रेत, विद्या सब न प्रधान । मनुष्य प्रतिष्ठा वर्द्धिका, वस्तु पांच सुजान ॥ ४७ दान समा कोड पुन नहिं, लोभ समां नहिं पाप । सुक्ख नहीं संतोष सम, चित! सम संताप ॥ ४८ स्वहित आचरो परवथा किं बहु नलिकान | नहिं उय कोऊ इतो, तो सर्व पुमान ॥ ४९ १ भव्य २ जीव ३ सरधान ।
निरमलता जिम रत्नमें, विना शान नहिं होय । साधु प्रकृतितिम प्रकट, आपद बिन नहिं होय ॥ २३ जैसो चित तैसो बचन, यथा वाच तिम कर्म । मनवचतनत्रय एकता, साधुनको यह धर्म ॥२४ अंतर्लापिका
न किसेको प्रथम, नमें किसे तीर्थेश | ध्यान स्मरण किने कब करें, अरहत सिद्ध इमेश ।। २५ बोध सुकृत धन दानहित, चिंता स्वात्मविचार । जीवन तिनको धन्य है, बाचा पर उपकार ॥ २६ सर्वावस्था सब जगह, गुणिजन पावत मान । मणिमूर्ध्निगल बाहुकर, पहनो तहां शोमान ॥२७ होय विवेकी धन हुवे, विनयि विद्यावान | जु रहित मान सत्ता मिले, चिन्ह महाजन जान ॥ २८ मागम साक्षी बिन करै, पावै सो अपमान । ज्योतिष वैद्यक धर्मको, निर्णय दंड विधान ॥ २९ दुर्जन ढूंढें छिद्रको व्यवसायी व्यापार । पाचक ढूंढ़े दानिको कामी कुलटा नार ॥ ३० ज्ञानि च सिद्धांतको, वेश्या घनिक महान | योगीजन एकांतको, चाहें ठग अज्ञान || ११ राजा स्त्री अरि सरप, योवन रूप निधान । वायु इन बसु बस्तुको करो प्रतीतक दान ॥ ३२ जहर शस्त्र विक्रय करै, चौर क्रूर मद पान | गर्भपाविनी स्वैरिणी, संगति करो कदान ॥ ३३ आतम विद्या हीनको, विद्या जाल निरर्थ । जैसे विधवा नारि तन, भूषण भूषित व्यर्थ ॥ ३४ धर्म र अरु काम शिव, इन जड जीवन जान । तिसरक्षक किन दियो, इरता क्यान इरान ॥ ३५
१ अरहत, २ सिद्ध, ३ अरइतसिद्ध हंमेश ।
[ वर्ष १७