Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ अंक ५] दिगम्बर जैन। जो कर्म करना चाहिए, उसी विषयके कुछ . "तनश्चतुर्थेऽहन्येनामुत्साद्य सशिरस्का सदुपदेशोंका नीचे वर्णन करते हैं- स्नापयित्वा शुक्लानि वासांस्याच्छादयेत्पूरू... "अथाप्येतौ स्त्रीपुरुषौ स्नेहस्वेदाभ्याम- षञ्च ।" पपाद्य वमनविरेचनाभ्यां संशोध्य क्रमात्क - अर्थात् इसके पश्चात् चौथे दिन शरीरमें उबतिमापादयेत्संशुद्धौ चास्थापनानुवासनाभ्या- टन और तेलादिकी मालिश करके स्त्रीको शिरसे मुपाचरेदिति ।" स्नान कराकर शुक्ल वस्त्र पहिरावे । इसी अर्थात् प्रथम उन दोनों स्त्रीपुरुषोंके शरीरको प्रकार पुरुषको भी स्नान कराकर शुक्क बस्त्र स्नेहन और स्वेदनसे मृदु बनाकर फिर क्रमसे धारण करावे । वमन और विरेचनके द्वारा संशोधन करके "ततः शुक्लवाससौ च स्रग्विणौ मुमउनको उत्तम प्रकृतिवाला बनावे । इस प्रकार नसावन्यान्यमभिकामी संवसेतामिात ब्रूयात्।" दोषादिकोंसे शरीरके शुद्ध होनानेपर दोनोंको अर्थात् इसके अनंतर वैद्य उन श्वेत और मधुर द्रव्यों और घृत, दुग्धादिकोंके द्वारा शुद्ध वस्त्र धारण किये हुए, सुगंधित पुष्पमा. "मास्थापन और अनुवासन वस्ति देवे। लादिसे सुशोभित, शुद्ध मनवाले और परस्पर सन का उत्तम सन्तानकी कामनासे सहवास करनेकी ब्रह्मचारिण्यवशायिनी पाणिभ्यामनमर्जर- इच्छावाल दाना स्त्रीपुरुषाको सहवास करनेका पाने भुजाना न च काश्चिदेव मृजामापयेत।" . अर्थात् इसके पश्चात् जिस दिन जिस समय ___" स्नानात् प्रभृति युग्मेष्वहःसु संवसेतां समी ऋतुमती हो उस दिनसे लेकर तीन सत्रि 6 पुत्रकामौ तौ चायुग्मेषु दुहितकामौ ।" का पर्यन्त ब्रह्मचारिणी अर्थात् पतिके सहवाससे अथोत् पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छा हो तो वे रहित रहे, हाथका तकिया लगाकर भूमिमें पाना : दोनों स्नान करनेके दिनसे अर्थात् चौथे दिनसे शयन करे और पुराने पीतल, लोहादि धातुके । युग्म दिनोंमें (ऋतुकालकी १३ रात्रियोंमसे या मिट्टीके पात्रमें हाथोंसे मन्नको लेकर भोजन ४-६-८-१०-१२-१४ और १६वीं रात्रिमें) करे । किप्तीको स्पर्श न करे । और इस सम. और कन्या उत्पन्न होनेकी इच्छा हो तो वे यमें स्नान, शरीरमार्जन आदि किप्ती प्रकारका . अयुग्म दिनोंमें (अर्थात् ५-७-९-११-१३ भी शुद्धाचार अथवा किसीका अहित नहीं करें। और १५ वीं रात्रिमें) सहवास करें । "न च न्युजां पार्वगतां वा संसेवेत।" प्राचीनकालके समस्त ऋषि, मुनियोंने एक अर्थात् उल्टी या दाहिने, बायें करवटसे स्वरसे ऋनुसावके समय ( अर्थात् ऋतुकालके शयन करती हुई स्त्रीसे सहवास नहीं करना तीन दिन तक) सहवास करने का विशेष रूपसे चाहिए। स्त्रीको चित्त लेटकर वीर्य ग्रहण करना निषेध किया है। चाहिए। महर्षि मात्रेय कहते हैं " पर्याप्ते चैनां शीतोदकेन परिषियेत् ।"

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