Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ १२] दिनम्बर जैन । [ वर्ष १७ प्राप्त नहीं हुई । एक दफा कुछ कानूनी नजा- पढ़ाया जाता है । योरुपीय विद्याओं जौर हुनयरके अनुवाद भी उर्दू भाषामें छपे थे परन्तु संस्कृत भाषामें अनुवाद करना तो केवल समय उनका कुछ आदर नहीं हुआ और जहाँ तक और शक्तिका निरर्थक प्रयोग करना ही ठहरेगा, मुझे विदित है उनका छपना भी बिल्कुल दोइ क्योंकि उसके व्ययका तो कुछ ठिकाना ही नहीं हो गया है । साइन्समें अनुवादसे भी काम कितना अधिक हो, परन्तु यह भी नहीं कहा नहीं चलता, क्योंकि प्रथम तो साइन्सकी परि. जा सकता है कि बहुतसे मनुष्य इस प्रकारके भाषाके लिये इन भाषाओंमें सुयोग्य शब्द ना अनुवादोंसे लाभ उठा सकेंगे। साइन्स केवल नहीं मिलते हैं; दुसरे किस किस बातका रू। घरमें बैठकर पुस्तकों द्वारा ही सीखा सिखाया तक अनुवाद किया जाय । नित्यः नहीं जा सकता है। उसके प्राप्त करनेके लिए नवीन खोनें हुआ करती हैं और निरः विविध प्रकारके अनुभवों (Experiments)की सहस्रों पुस्तकें प्रकाशित होती रहती हैं। आवश्यकता है जो यन्त्रों की सहायतासे अंग्रेजी अनुवाद भी कहांसे आयेंगे। क्या अंगरे स्कूलों और कलिनों में ही कराये जा सकते हैं। भाषासे पूर्णतया जानकारी प्राप्त किये विना का यह भी नहीं हो सकता कि हम कहें कि व्यक्ति किसी पुस्तकका अनुवाद कर सकेगा ? सांसारिक विद्याओं, ज्ञान तथा हुनरोंको सीख अब संस्कृतको लीजिये, यह तो उर्दू हिन्दीसे कर ही क्या करेंगे, केवल संस्कृत विद्या ही भी अधिक इस समयमें साइन्सकी भाषा कह- निरन्तर पढ़ते रहें तो अच्छा है। अव्वल लानेके अयोग्य है। इसके पूर्ण ज्ञाता तो भारत. तो ऐसा होना ही असम्भव है; यदि यह मान वर्षमें अनुमानतः सौ दो सौसे अधिक प्राप्त न भी लिया जावे कि प्रत्येक व्यक्तिको हम होंगे। यह भाषा मादरी (निजी) ज़बान भी एक प्रस्तावके द्वारा इस बातपर बाध्य करदें नहीं है कि जो सुनने सुनाने ही से आ जावे। कि वह सब विद्याओं व हुन्नरोंको छोड़कर जितने ज्ञान व विद्यायें व कला-कौशल किलो केवल संस्कृत भाषामें ही पुस्तकें अध्ययन किया समयमें इस भाषामें थे वह सब अब प्रायः नष्ट करें तो इसका फल अवश्य यही होगा कि हो चुके हैं। केवल एक धर्मका विज्ञान शेष है हमारी लोकमें प्रतिष्ठा जाती रहेगी, क्योंकि सो वह बहुत कुछ लुप्त होचुका है । अब वह कार्यकुशलता व चातुर्यताके. कारण ही मनुष्य समय संस्कृत भाषाकी उन्नतिका बाकी नहीं रहा व जातियों की लोकमें प्रतिष्ठा हुआ करती है। जैसा कि श्रीनेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती तथा और इन्हींसे धनकी भी प्राप्ति होती है। श्रीसमन्तभद्राचार्य जैसे शास्त्रकारोंके समय में सांसारिक विद्याओं तथा कृतियों में कुशलता था। वर्तमानकालमें उनकी समताका कोई भी प्राप्त करना तो दूर रहा जब हम उनसे नितांत बुद्धिमान पैदा नहीं हुआ यद्यपि जैनियोंमें भी अनभिज्ञ हो जायँगे तो फिर हमारी लोकमें अब कई विद्यालय ऐसे हैं जिनमें सिद्धान्त प्रतिष्ठा किस प्रकार होगी और धन कहांसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34