Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 13
________________ अंक ५] दिगम्बर जैन भाई बहिनकर अपने आपको उस अपूर्व कीर्ति दीमिये । नितनी नई खोने गत एक सहस्र और यशके पात्र बनावेंगे जो इस समय श्रीम- वर्षों के भीतर हुई हैं वह सब भारतवर्षके बाहर, तीनीको प्राप्त हैं। यहांपर यह भी प्रगटकर इङ्गलिस्तान और अन्य देशों में ही हुई हैं और देना आवश्यकीय है कि वर्तमान समयके उप- उन्हीं देशोंकी भाषाओं में उनका वर्णन है। स्थित सज्जनोंके निमंत्रण तथा व्ययका सौभाग्य इस अंग्रेजी भाषाके ज्ञाता करीब करीब समस्त भी उक्त महोदयाको ही प्राप्त है। संसारमें मिलते हैं जिसके कारण इसके द्वारा इस सिलसिले में मैं बाबू शिवचरणलाल वकी- प्रत्येक बातका प्रचार सुलभतासे समस्त देशोंमें ककी अचानक व अकाल मृत्युपर शोक प्रकट हो सकता है । इसके अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा किये विना नहीं रह सकता हूँ। वह इस होस्टे- विज्ञानकी जीती जागती भाषा है और समस्त कके भूतपूर्व प्रेसीडेन्ट थे। उनकी हार्दिक विद्याओं और कला-कौशल इत्यादिका भण्डार भावना सदा इस होस्टेलके उन्नतिकी ही रही भी इसी भाषामें ही है। फिर अंग्रेजी जवान निसका वे उत्तमताके साथ प्रयत्न अपने जीवन राज्य भाषा भी है इससे इसका प्रचार प्रतिदिन कालमें करते रहे और जो सौंदर्य व सुयोग्यता उन्नतिपर है । जब तक भारतवर्षका सम्बन्ध यहांपर दृष्टिगोचर है वह उन्हीके निःस्वार्थ अंग्रेज जातिसे है तब तक यह उनकी भाषा परिश्रम का फलस्वरूप है । आशा है कि उन भी अवश्य उन्नति करती रहेगी। इसलिए इस महोदयकी आत्मा निन पदको शीघ्र ग्रहण भाषाके अतिरिक्त और कोई भाषा इप्त समय करेगी। ____ भारतवर्षके लिये राज और सांसारिक विद्या इसके साथ मुझे शिक्षाप्रणाली विषयपर तथा कार्यकुशलतामें प्रतिष्ठा प्राप्तिका द्वार नहीं विशेष यह कहना है कि कुछ सज्जनोंका यह है। राज्य नियम अर्थात् कानून भी अंगरेनी विचार है कि अगरेजी शिक्षा हानिकारक भाषामें ही बनाए व लिखे जाते हैं। और त्याज्य ही है तथा अब हमको उचित है क्या उर्दू, हिंदी तथा संस्कृत भाषायें वर्वकि हम अपने बच्चोंको ऐसी शिक्षासे हटाकर मान कालमें अंगरेनोकी समताकर सकती हैं ? केवल संस्कृतकी शिक्षा दिलावें । परन्तु मेरे मैं विचार द्वारा इस कहनेपर बाध्य होता हूँ विचारसे यह एक भ्रमपूर्ण और नितान्त अयो. कि नहीं ! कारण कि उर्दू भाषा तो साइन्स, ग्य विचार है जो उन व्यक्तियों के हृदयों में जो फिलासफी (विज्ञान) और कानून तीनों हीसे यहांके छात्रोंसे - जानकारी रखते हैं कदापि खाली है मगर हिंदी केवल फिलासफीके लिये उत्पन्न नहीं हो सकता । मैं कुछ विस्तारके अवश्य मौजूं है । साइन्स व साइटिफिक विद्या. साथ इस विषयपर समालोचना करूंगा जिसके ध्ययनके लिये कुछ महानुभावोंने उर्दू और लिये मैं आशा करता हूँ कि आप मुझ को क्षमा हिंदी भाषाओं के सुधारनेका भी प्रयत्न किया करेंगे । प्रथम अंग्रेनी भाषाकी ओर ध्यान परन्तु इस कार्यमें उनको कुछ अधिक सफलता

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