Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ orm १६) दिगम्बर जैन । [ वर्ष १७ पड़ेगा कि हमने इस विद्या-विभागमें उल्टी पाबन्दी जैनियोंको करनी पड़ती है और अंग्रेजीउन्नति अर्थात् अवनति ही की है। दो बकोलों, बैरिस्टरोंके अतिरिक्त अन्य जैनमें ___ इस सहस्र वर्ष में जैनियोंकी संख्या कितनी एक भी पुरुष ऐसा नहीं है जो समाजके मुककम हो गई है इसका तो पता लगाना ही कठिन दमोंको कचहरियोंमें उचित रीतिसे स्वयं संभाल है, परन्तु इतना मालुम होता है कि एक सकें। ---- समयमें जैन धर्म समस्त भारत देश में फैला हुआ तीर्थों के प्रबन्धमें भी गत समयमें ऐसी था । अब बहुतसे स्थान ऐसे हैं जहां न जैन कारगुनारी की गई कि दिगम्बर जैनियोंका हैं न जैन-मंदिर या जहां केवल जैन-मंदिर प्रबन्ध सब जगह झगड़ेमें पड़ गया और कहीं ही रह गये हैं जैनी नहीं हैं। अब भी किन्हीं कहीं हाथसे भी निकल गया । भानकल भी स्थानोंपर ऐसे जैनी पाये जाते हैं जो अपने हमारे लाखों रु मुकद्दमातमें व्यर्थव्यय हो और अपने धर्मको करीब करीब बिल्कुल भूल रहे हैं ताकि हम पनी लापरवाहीके परिणागये हैं। यह इस कारणसे नहीं कि अंगरेजी मोंसे बचें ।। शिक्षाने उनको धर्मविरुद्ध कर दिया है। यह मतः जब हम' त सहस्र वर्षकी कारगुजरी लोग क्यों अपने और अपने धर्मसे अनभिज्ञ पर जो अंगरेजी शिक्षणसे पहिलेकी है, दृष्टि हैं ? इसके कई कारण हैं। अव्वल तो गृहस्था- डालते हैं तो प्रतीत होता है कि प्रत्येक स्थाचार्योका ही अभाव हो गया है यहां तक कि नमें अवनति और खराबी ही खराबी भर गई संस्कृत के बड़े बड़े विद्वानोंमेंसे भी कोई अब थी। न शास्त्रोंकी उचित रक्षा हुई न तीर्थो की इस पदको नहीं पहुंचता है। दूसरे धर्मपुस्तकें न धर्मका प्रभाव बढ़ा न धर्मात्माओंकी जनसंख्या भी २० वर्ष पूर्व प्रकाशित नहीं होती थीं। ही स्थित रही। सच तो यह है कि अंगरेनी हाथके लिखे हुये शास्त्र अधिकांश संस्कृत और शिक्षणके पूर्व समाज विधवा बनाने का कार्यालय प्रारूतमें ही होते थे निनको पढ़ना और सम- बना हुआ था जिसमें से सैकड़ों दुधमुहे बच्चे झना प्रत्येक व्यक्ति के लिये असम्भव था । इस सदैवके रोने बिलकनेके लिये विधवापनके सांचेमें लिये कौन आश्चर्यकी बात है कि ऐसी दशामें पड़कर बालविधवाके तौरपर सुसजित होते थे। लोग अपने धर्मसे अनभिज्ञ हो जावें। क्या यही धर्मानुकूलता है जिस पर किमीको जैन ला (कानून)की पाबन्दी भी गत समय में अमिमान हो सकता है ? धीरे धीरे कम होती गई। यहांतक नौबत पहुंची अंगरेनी शिक्षणने अभी २० वर्षके अन्दर कि कोई जैन कानूनकी पुस्तक पूर्णरूपमें अब ही अन्दर आंख खोली है। और तबसे उसकी नहीं मिलती हैं और जो अपूर्ण पुस्तकें मिलती दृष्टि इन बुराइयोंके दूर करनेकी और लगी हैं उनमें किन्हीं किन्हीं मौकों पर एक दूसरेमें हुई है। हर्षका स्थान है कि धर्मप्रभाव जो गत मतभेद पाया जाता है। अब हिन्दू ला की समयमें बहुत गिरी दशामें पाया जाता था भब

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34