Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 09
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 14
________________ दिगंबर जैन । SCENO ( १२ ) केवलज्ञानियों तक दोनों सम्यदायों में एकता है । इसके आगे जो श्रुतके वली हुए हैं वे दिगम्बर सम्प्रदाय में दूसरे हैं और श्वेताम्बर में दुसरे | आगे मद्राको अवश्य ही दोनों मानते हैं। इस लिए यह प्रतीत होता कि मगदानकी निर्माण प्राप्ति के साथ ही मतभेद उपस्थित नहीं होगया था, बल्कि श्रुतके चिटियों के जमानेसे हुआ होगा | जिन आचार्योंने सनातन धर्मके अनुसार श्रद्ध न रखखा होगा उनका नाम दिग म्बर गुर्वावली में मिलता है । और जिनने उसमें २ का करके स्त्री मुक्ति आदि सिद्धान्त माने होंगे, उन्हें पश्चात् में श्वेताम्बरोंने अपनाया होगा । परन्तु ऐसा अनुमान कर लेने से बौद्धग्रन्थका उक्त वर्णनखण्डित हो जाता है । और इसलिए रह 1 अनुमान बाधित होता है । किन्तु बौद्ध ग्रन्थके उक्त वर्णन में तिशयोक्ति प्रमाणित होती है। क्योंकि एक अन्य वौद्ध ग्रंथ 'मज्झिमनिकाय भाग २ एष्ट १४३ में निम्न उल्लेख है। एवम् समरम् भगवा इक्केसु विहारति सामगाये | तेखोपन समयेण निगन्यो नातप्रत्तो पावारम् अधुना कालको होति । तस्ल कालक्रियाय भिन्न निगन्य द्वेधिकजाता भंडनजाता कलह जाता विशदापन्ना अण्णमण्णम् मुखसत्तीहि वितुदन्त विहारान्ता " ३ : 66 इससे यह प्रगट नहीं होता कि म० बुद्धके जीवन काल में ही जैन संघ में दो भेद हो गए थे । और यहां पर बताया गया है कि म० बुद्धने सामगमको जाते हुए मर्ग में स्वयं मग वान महावीरका निर्वाण होते पावामे देखा था । इसमें आनन्दके खबर पहुंचाने और म० बुद्ध के 1 उपदेश देनेका कोई उल्लेख नहीं है । इस प्रगट है कि भगवानकी निर्वाण प्राप्तिके साथ ही संघ में मतभेद उपस्थित नहीं हुआ था | बल्कि उसके कुछ समय ही बाद मतभेद खड़ा हो गया था, जो दिवादसम्पन्न रहा । और दोनों मतके अनुयायी अपने२ श्रद्धान अनुसार विचरते रहे ऐसा प्रतीत होता है । और हमारे इस अनुमानकी पुष्टि होती है कि तीनों केवलज्ञानियों तक तो संघ में पूर्ण ऐक्यता रही। परन्तु श्रुतकेवढियों के समय से मतभेद उपस्थित हो गया, जो क्रमशः चलवर अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु और राजा चंद्रगुप्तके जमाने में प्रगटरीत्या बाह्य वेषमें मी प्रगट हो गया । और फिर दो विभागोंमें संघ विभक्त हो गया, जैसा कि जैनहितेर्ष के उक्त वर्णन में व्यक्त किया गया है । इस प्रकार श्वेतांबर संप्रदाय की उत्पत्ति हुई थी जिसके प्रारम्भिक मुख्य कारण सैद्धान्तिक थे अर्थात् स्त्रीमवसे मुक्ति मानना और केवलियोंको आहार करते मानना आदि और अन्त में राजा चन्द्रगुप्तके काल में उसके वाह्य वेष में मी अन्तर पड़ गया था | भगवान महावीरके पश्चात् तीन केवलियोंका होना माना गया है। जिनमें अन्तिम केवलज्ञानी जम्बूस्वामी थे । परन्तु त्रिलोकप्रज्ञ' त' के ६९ वीं गाथामें कहा गया है कि केवलज्ञानियों में सबसे अन्तिम श्रीधर हुए जो कुण्डका गरिसे मुक्त हुए। ऐसी दशा में यह समझ में नहीं आता कि यहां श्रीधरको क्यों अन्तिम केवली बतलाया गया । शायद यह अन्तःकृत केवली हो । परन्तु इस संशयात्मक विवरणसे हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टि होती

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