Book Title: Dhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 240
________________ ध्यान में बाधाएं यदि इस धारणा के साथ तुम ध्यान में लेकिन मेरे लिए यह बिलकुल भी अभीप्सा बन जाते हैं कि वह कौन है। यह प्रवेश करो-कि असफलता हाथ लगेगी आलोचना नहीं है। यह तो सीधा-सादा स्वाभाविक है। अब उसे अपनी सीमाओं ही, कि यही तुम्हारी नियति है, कि यह सत्य है। हां, धर्म की खोज फिर से गर्भ का बोध होने लगता है-अपने शरीर का, तुम्हारा भाग्य है-तब निश्चित ही तुम की खोज है। धर्म की खोज फिर से इस पूरे अपनी जरूरतों का। कभी वह सुखी होता सफल नहीं हो सकते। यदि अहंकार बड़ा अस्तित्व को ही एक गर्भ बना लेने की है, कभी दुखी होता है; कभी वह तृप्त हो तो तुम्हें बाधा देता है। और अहंकार खोज है। होता है, कभी अतृप्त होता है; कभी उसे बहुत छोटा हो तो एक घाव बन जाता है, बच्चा मां के साथ पूरी तरह लय में भूख लगी होती है, वह रो रहा होता है और फिर वह भी बाधा देता है। दोनों ही बातों में होता है। बच्चे की मां के साथ लय कभी मां का कोई पता नहीं होता; कभी वह मां अहंकार एक समस्या है।। नहीं टूटती। बच्चे को मां से भिन्न होने का के स्तनों से लगा होता है, और फिर से मां बोध नहीं होता। यदि म स्वस्थ है तो के साथ एकरूपता का आनंद लेता है। के गर्भ में हर बच्चा बिलकुल बच्चा स्वस्थ है; यदि मां बीमार है तो लेकिन अब कई भाव, और कई दशाएं हैं, आनंदित होता है। निश्चित ही बच्चा बीमार है। यदि मां उदास है तो और धीरे-धीरे वह अलगाव अनुभव करने वह उससे बेखबर होता है, उसका उसे बच्चा उदास है; यदि मां प्रसन्न है तो बच्चा लगेगा। एक अलगाव हो गया, गठबंधन कोई बोध नहीं होता। वह अपने आनंद के प्रसन्न है। यदि मां नाच रही है तो बच्चा टूट गया। मां के साथ उसका पूरी तरह साथ इतना एकरूप होता है कि पीछे जानने नाच रहा है; यदि मां शांत बैठी हुई है तो गठबंधन था; अब वह हमेशा अलग वाला कोई नहीं बच रहता। आनंद उसका बच्चा शांत है। बच्चे की अभी अपनी रहेगा। और उसे खोजना होगा कि वह स्वभाव होता है, और ज्ञाता व ज्ञेय के बीच स्वयं की सीमाएं नहीं हैं। यह शुद्धतम कौन है। जीवन भर व्यक्ति यही खोजने कोई भेद नहीं होता। तो निश्चित ही बच्चे आनंद है, लेकिन इसे खोना पड़ता है। का प्रयास करता रहता है कि वह कौन है। को बोध नहीं होता कि वह आनंदित है। बच्चा पैदा होता है, और अचानक वह यह सबसे बुनियादी प्रश्न है। तुम्हें बोध तभी होता है जब तुम कुछ खो केंद्र से परे फेंक दिया जाता है। अचानक बच्चे को पहले 'मेरे' का बोध होता है, देते हो। वह धरती से, मां से उखड़ जाता है। उसके फिर 'मुझ' का, फिर 'तू' का, और फिर 'मैं' यह ऐसा ही है। बिना कुछ खोए, उसे सहारे खो जाते हैं, और उसे पता नहीं होता का। ऐसे बात आगे चलती है। ठीक ऐसी जानना बहुत कठिन है क्योंकि जब तुमने कि वह कौन है। जब वह मां के साथ था प्रक्रिया है, ठीक इसी शृंखला में। पहले उसे खोया ही नहीं तो तुम उसके साथ पूरी तो जानने की कोई जरूरत भी नहीं उसे 'मेरे' का अनुभव होता है। इस पर तरह एकरूप हो। कोई भेद ही नहीं है: थी—वह सब कुछ था, और जानने की ध्यान दो, क्योंकि यही तुम्हारी, तुम्हारे द्रष्टा और दृश्य एक हैं; ज्ञाता और ज्ञेय कोई जरूरत नहीं थी, कोई भेद नहीं था। अहंकार की संरचना है। पहले बच्चे को एक हैं। कोई 'तू' नहीं था, इसलिए किसी 'मैं' का 'मेरे' का बोध होता है-'यह खिलौना मेरा __ हर बच्चा गहन आनंदपूर्ण दशा में होता कोई प्रश्न नहीं था। सत्य अविभाजित था। है, यह मां मेरी है।' वह कब्जा करने लगता है। मनोवैज्ञानिक भी इससे सहमत होते हैं। अद्वैत था, शुद्ध अद्वैत था। है। कब्जे वाला मन पहले प्रवेश करता है; वे कहते हैं कि धर्म की पूरी खोज मां के लेकिन एक बार बच्चा पैदा हो जाए, कब्जे का भाव बुनियादी है। इसीलिए सभी गर्भ को फिर से खोज लेने के अतिरिक्त और उसकी नाभि के तंतु काट दिए जाएं धर्म कहते हैं: अपरिग्रही हो जाओ, और कुछ भी नहीं है। वे इसे धर्म की और वह अपने आप से श्वास लेने लगे तो क्योंकि परिग्रह के साथ ही नरक शुरू हो आलोचना की तरह उपयोग करते हैं, अचानक उसके पूरे प्राण यह जानने की जाता है। 224

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