Book Title: Dhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ ओशो से प्रश्नोत्तर पर जबरदस्ती लादने की कोई जरूरत नहीं, हो, तो एक अनुशासन तुममें आ जाता जीवन की सुनिश्चितता अभी भी आयी तुम्हें उसे गढ़ने की कोई जरूरत नहीं, कोई है-एक आंतरिक अनुशासन। यह नहीं। यह एक बहुत ज्यादा संभावनापूर्ण जरूरत नहीं कि तुम उसे कोई ढांचा दो, अकारण होता है, अहेतुक होता है। यह घड़ी होती है, बहुत गर्भित घड़ी। यदि तुम कोई अनुशासन दो और कोई व्यवस्था दो। किसी चीज की तलाश नहीं है, यह तो बस डर जाते हो और वापस मुड़ जाते हो, तो जीवन की अपनी व्यवस्था है, उसका घटता है। जैसे कि तुम सांस लेते हो, जैसे तुम संभावना को चूक जाओगे। अपना अनुशासन है। तुम बस उसके साथ कि जब तुम्हें भूख अनुभव होती है और आगे है सच्ची निश्चितता। वह सच्ची चलो, तुम बहो उसके साथ, तुम नदी को तुम कुछ खा लेते हो, जैसे कि जब तुम्हें निश्चितता अनिश्चितता के विपरीत नहीं धकेलने की कोशिश मत करना। नदी तो नींद आने लगती है और तुम बिस्तर पर है। आगे है सच्ची सुरक्षा, लेकिन वह बह रही है-तुम उसके साथ एक हो चले जाते हो। यह आंतरिक सुव्यवस्था सुरक्षा असुरक्षा के विपरीत नहीं है। वह जाओ और नदी ले जाती तुम्हें सागर तक। होती है, एक अंतर्निहित सुव्यवस्था। वह सुरक्षा इतनी विशाल होती है कि वह __ यही होता है एक संन्यासी का जीवनः आ बनेगी जब तुम्हारा ताल-मेल बैठ जाता असुरक्षा को स्वयं के भीतर ही समाए सहज होने देने का जीवन-करने का है असुरक्षा के साथ, जब तुम्हारी सुसंगति रहती है। वह इतनी विशाल होती है कि नहीं। तब तुम्हारी अंतस-सत्ता पहुंच जाती बन जाती है अपने भीतर के अजनबी वह असुरक्षा से भयभीत नहीं होती। वह है, धीरे-धीरे, बादलों से ऊपर, बादलों के साथ, जब तुम अपने भीतर की अज्ञात असुरक्षा को सोख लेती है स्वयं में ही, वह और अंतर्विरोध के पार। अचानक तुम सत्ता के साथ लयबद्ध हो जाते हो। सारी विपरीत बातों को समाए रहती है। मुक्त होते हो। जीवन की अव्यवस्था में, झेन में उनके पास एक कथन है, इसलिए कोई उसे कह सकता है असुरक्षा तुम एक नई व्यवस्था पा लेते हो। लेकिन सुंदरतम कथनों में से एकः जब कोई और कोई उसे कह सकता है-सुरक्षा। व्यवस्था की गुणवत्ता अब संपूर्णतया व्यक्ति संसार में रहता है, तो पर्वत पर्वत वस्तुतः वह इनमें से कुछ भी नहीं, या फिर अलग होती है। यह कोई तुम्हारे द्वारा होते हैं, नदियां नदियां होती हैं। जब कोई दोनों ही है। आरोपित चीज नहीं होती, यह स्वयं जीवन व्यक्ति ध्यान में उतरता है, तब पर्वत फिर यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम स्वयं के साथ ही आत्मीयता से गुंथी होती है। पर्वत नहीं रहते, नदियां नदियां नहीं रहतीं। के लिए अजनबी बन गए हो, तो उत्सव वृक्षों में भी एक व्यवस्था होती है, हर चीज एक भ्रम और एक अव्यवस्था मनाओ इसका, अनुगृहीत अनुभव करो। नदियों में भी, पर्वतों में भी, लेकिन ये होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति उपलब्ध यह घड़ी बहुत विरल, अनूठी होती है; व्यवस्थाएं वे नहीं जो नैतिकतावादियों कर लेता है सतोरी को, समाधि को, फिर आनंदित होओ इससे। जितना ज्यादा तुम द्वारा, प्यूरिटन्स द्वारा, पुरोहितों द्वारा नदियां नदियां होती हैं और पर्वत होते हैं आनंदित होते हो, उतना ज्यादा तुम पाओगे आरोपित होती हैं। वे किसी के पास पर्वत। कि निश्चितता तुम्हारे ज्यादा निकट चली मार्गनिर्देशन के लिए नहीं जाती। व्यवस्था तीन अवस्थाएं होती हैं: पहली में तुम आ रही है, और-और तेजी से चली आ अंतर्निहित होती है; वह स्वयं जीवन में ही अहंकार के प्रति सुनिश्चित होते हो; तीसरी रही है तुम्हारी ओर। यदि तुम उत्सव मना होती है। अहंकार वहां नहीं रहता योजनाएं में तुम निरहंकार अवस्था में परिपूर्ण सको तुम्हारे अजनबीपन का, तुम्हारे बनाने को, यहां-वहां खींचने-धकेलने निश्चित होते हो और इन दोनों के बीच उखड़ाव का, तुम्हारी गृहविहीनता का, तो को–कि यह करो और वह करो। अराजकता की अवस्था है, जब अहंकार अचानक तुम पहुंच जाते हो घर-तीसरी __ जब तुम पूरी तरह अहंकार से मुक्त होते' की निश्चितता तिरोहित हो गयी है और अवस्था आ गयी होती है। 8 267

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320