Book Title: Dhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 290
________________ रहा था तो मंदिर देखने गया । मैंने तिब्बत से, जापान से, चीन से आए लामाओं को देखा। वे सभी बोधि वृक्ष को अपनी श्रद्धांजलि दे रहे थे, और मुझे एक भी लामा नजर नहीं आया जो उन पत्थरों के प्रति सम्मान प्रकट कर रहा हो जिन पर बुद्ध मीलों-मील चले थे। मैंने उन्हें कहा, "यह ठीक नहीं है। तुम्हें उन पत्थरों को नहीं भूलना चाहिए । गौतम बुद्ध के चरणों ने उन्हें लाखों बार स्पर्श किया है। लेकिन मुझे पता है तुम उनकी ओर कोई ध्यान क्यों नहीं दे रहे, क्योंकि तुम बिलकुल भूल चुके हो कि बुद्ध का इस बात पर जोर था ओशो से प्रश्नोत्तर कि तुम अपने शरीर के हर कृत्य का अवलोकन करो : चलना, बैठना, लेटना । " एक भी क्षण तुम बेहोशी में मत जाने दो। द्रष्टा होना तुम्हारे होश को पैना करेगा। यही मूल धर्म है— बाकी तो सब कोरी बातचीत है। लेकिन मुझसे पूछते हो, “क्या इसके अतिरिक्त कुछ और भी है ?” नहीं, यदि तुम केवल द्रष्टा होना भर साध सको तो किसी और चीज की जरूरत नहीं है। यहां मेरा प्रयास है कि धर्म को जितना हो सके सरल बना दूं। सब धर्मों ने ठीक इससे विपरीत प्रयास किया है उन्होंने चीजों को बहुत जटिल बना लिया है — इतना जटिल कि लोगों ने कभी उनको करने की चेष्टा ही नहीं की। उदाहरण के लिए, बौद्ध शास्त्रों में बौद्ध भिक्षुओं के लिए तैंतीस हजार नियम हैं; और उन्हें स्मरण रखना तक असंभव है। तैंतीस हजार की संख्या ही तुम्हें घबड़ाने के लिए पर्याप्त है: “मैं तो गया ! मेरा पूरा जीवन व्यथित और विनष्ट हो जाएगा। " मैं तुम्हें सिखाता हूं कि बस एक नियम खोज लो जो तुम्हें ठीक बैठता हो, जो तुम्हारे साथ लयबद्ध होता हो — और वह पर्याप्त है। 10 274

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