Book Title: Dev Vandana Stuti Stavan Sangrah Author(s): Buddhisagar Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं, तेथी पोताने जे प्रिय सत्य न लागे तेनुं खंडन करवा मंडीजवू ते एकांत संकुचित निरपेक्ष दृष्टि छे. भाषा, राज्य, कोम, प्रजा, धर्मपर, जो सख्त निया पडे छे तो तेथी भाषा वगेरेनुं मृत्यु धाय छे. संस्कृत भाषापर घमा नियम कायदा थया तेथी ते जीवती भाषा रही नहीं, तेम स्तवनो कारे पर जो हदयभाव दाववाना नियमो पडे तो दुनियामांथी औद्गारिक स्तवनोवाळी भक्तिनो नाश थाय एम अनु. भवीओ जाणे छे. भावपर कायदो ते जीवतां मृत्यु छे. जेने जे भाव वाळां स्तवनो वगेरे रुचे ते ग्रहण करे एवी भावनावाला स्वतंत्र भतोना हृदयोमाथी उत्तम उदार भक्तिरसनी गंगाओ प्रगटवानी आशा राखी शकीए. वस्तुतः खरां स्तवनो तो ए छे के प्रभुनी स्तवना करवामां अंतरमांथी तेकाले स्वतः भक्तिरसमय गद्य वा पत्र कंइ बोलाय. एवां हार्दिक रसमय स्तवनो तेज प्रभुनां तानां स्तवनो छे. एवां स्तवनो तुर्त बनातीने गानारा ज्ञानी भक्त कवियो होय छे. वालजीवोनी एवी दशा होती नथी तेथी तेओ अन्योनां रचेलां अने पोताने पसंद पडे एवां स्तवनाने मुले करी प्रभुनी आगळ गाय छ अने आनंद माने छे. जे स्तवनो वगेरेनो अर्थ समजवामां आवे अने ते गानां शरीरमा भक्तिभावना आंदोलनो प्रगटे, तन विकसे. मन विकसे, आँखा विकसे, आत्मामां रसनां झरणो प्रगटे एवां स्तवनो गावां अगर तत्काल प्रभुनी आगळ नवां बनावीने गावां- मातृभाषामां रचेल स्तवनो, For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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