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श्रीदशलक्षण धर्म |
रियोंका अपकारी होजाता है, शरीर क्षीण होता है और सांसारिक कार्य भी बिगड़ जाते हैं, ऐसा समझकर भव्य (उत्तम) पुरुष कदापि क्रोधके वश नहीं होते हैं ।
क्रोधसे जीवोंको कैसे कैसे दुःख भोगने पड़ते हैं इसीके उदाहरण स्वरूप श्रेणिकपुराणकी एक कथा कहते हैं कि- एक नगरमें किसी ब्राह्मणकी इकलौती सुन्दर कन्या थी और वह ब्राह्मण राजपुरोहित था । इसलिये वह छोटी कन्या पिताके साथ कभी कभी राजमहलमें आया जाया करती थी । राजा भी उस कन्यापर रूपवती होनेके कारण बहुत प्रेम करते थे । यद्यपि वह कन्या रूपवती तथा विद्यावती थी, तथापि उसमें क्रोध भी असीम था, इसलिये यदि कोई कभी उसे तू करके बोल देता, तो वह मारे क्रोधके लाल हो जाती थी । प्राणियोंकी रुचि विचित्र है । लोगोंने उसे तू शब्दसे चिढ़ती हुई जानकर और भी चिढ़ाना आरम्भ किया | यहांतक कि उसका नाम ही 'तूकारी' पड़ गया । तूकारी लोगों के केवल तू शब्दपर ही अनेक गालियां देती, मारने दौड़ती और किसी किसीको मार भी बैठती थी तो भी राज्यके भय से उससे कोई कुछ भी नहीं
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कह सकता था 1
जब वह कन्या तरुण हुई, तो उसके क्रोधी स्वभाव के कारण कोई उसे नहीं व्याहता था। निदान कोई एक जुआरी - द्यूतन्यसनी ब्राह्मणने (जो कि जुआ में उधार द्रव्य लेकर हार गया था और जिसे अन्य जुआरी अपना उधार दिया हुआ द्रव्य न पानेके कारण नाकमें कौड़ी- पहिनाकर और उल्टा झाड़से टांगकर मार रहे थे, छुटकारा
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