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भूली बिसरी यादें • डॉ० श्रीमती रमा जैन, छतरपुर
२१ मार्च सन् १९५६की बात है। बुन्देलखण्ड के गौरव श्री दरबारीलाल कोठियाजीसे मेरी सर्वप्रथम भेंट हजारीबाग रेलवे स्टेशनपर ट्रेन में हुई थी। श्री कोठियाजो वर्णीजीके पास दर्शनार्थ जा रहे थे । मैं भी अपने छोटे भाई एवं अपने पतिदेवके साथ नव-गार्हस्थ्य-जीवनमें प्रवेश करनेके पहिले उनका आशीर्वाद लेने जा रही थी। कोठियाजीने जैसे ही मुझे देखा, हर्ष-विभोर हो ट्रेनमें ही 'नवदम्पति" के लिये इतनी शुभ कामनायें व शुभाशीर्वाद दिये कि हमें ईसरी व शिखरजी पहुँचने के पूर्व ही अपनी पूरी तीर्थयात्राको सफलता हासिल हो गयी । हमें लगा कितना सुखद है इस यात्राका प्रारम्भ ।।
कोठियाजीकी आत्मीयता व वात्सल्यसे सना हुआ एक-एक शब्द कभी-कभी आज भी कानों में गूंज उठता है । पूरी यात्रामें उन्होंने कितनी बार हम लोगोंके खाने-पीने व लम्बी यात्रामें परेशानी उठानेके बारेमें पूछा । चिन्ता भी व्यक्त को । मेरे छोटे भाई महेन्द्रकी थकावट तो उनकी शिक्षाप्रद मनोरंजक बातोंसे ही दूर हो गयी।
ईसरी आश्रममें पहुँचनेपर जब हम लोग पूज्य वर्णीजीके चरण-वन्दन करने जा रहे थे, तब हमने देखा कि श्री कोठियाजी हमारे शुभ संकल्पकी चर्चा आह्लाद भरे गद्गद कंठसे श्री वर्णीजीसे कर रहे थे। वे कह रहे थे कि "ये पहले विद्वान् दम्पति हैं, जिन्होंने ऐसा शुभ संकल्प कर नये जीवन में प्रवेश करनेका उद्देश्य बनाया है।" उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रशंसासे हम लोगोंके मस्तक झुके जा रहे थे । कोठियाजीकी प्रशंशा सुन बाबाजी भी कहने लगे-"भैय्या, देवपूजा और गुरुकी उपासना ये दो गार्हस्थ्य जीवनके षट्कर्मोंमेंसे प्रथम आवश्यक कर्म है । जिनके पालनसे स्वाध्याय, संयम तप और दान ये चार आवश्यक कर्तव्य पूर्ण
ते हैं। ये ही मानव-जीवनको सफल बनाते हैं। इसके बाद मेरी यात्राकी कुशल-क्षेम पूछने के बाद बाबाजीने २ खादीकी मालायें एवं २ खादीके चादर आशीर्वाद स्वरूप प्रदान किये। जो आज भी सुरक्षित हैं। यह बाबाजीका अमूल्य उपहार पाकर मेरी अंतरात्मा तप्त हो गयी। मैं मन-ही-मन अपने सौभाग्यकी सराहना करती रही।
सायंकाल श्री कोठियाजीके साथ हम लोग शिखरजीकी यात्रापर चल पड़े। उनके साथ यात्रामें ऐसा आभास होता रहा जैसे हमारे उभयपक्षके परिवारोंके शुभचिंतक संरक्षक हमारे साथ चल रहे हों । मधुवनमें ठहरने व आराम करनेके पश्चात् रात्रि १ बजे दैनिक क्रियाओंसे निवृत्त होकर हम सभी सम्मेदाचल पर्वतपर आरोहण करने निकल पड़े । मार्गमें गाये जाने वाले भक्ति गीत, भजन, विनती आदिसे निस्तब्ध वातावरण मुखरित होता जा रहा था। श्री कोठियाजीकी आह्लादमयी आवाज भक्तिके आवेशमें निर्जन पर्वत प्रान्तोंमें गूंज रही थी । बीच में उन्होंने क्षेत्रमें तीन-सौ बार आकर यात्रा करनेवाली वृद्धा माताकी चर्चा की। ताकि हम सभी दर्शनार्थियोंको १८ मीलकी लम्बी पहाड़ी यात्रामें थकानका अनुभव न हो।
वहाँसे लौट ही रहे थे, कि एक चित्र मेरे पतिदेवने मेरे छोटे भाई महेन्द्र कुमारका कोठियाजीके साथ लिया। तब श्री कोठियाजीने कहा कि क्षेत्रपर केवल मनोहर मूर्तियों व प्राकृतिक दृश्यावलियोंका चित्रण किया जाना चाहिये। व्यक्तिका चित्रण तो अपने मनमें छिपी हयी रागभावनाको परिपोषण मात्र करनेवाला होता है।
उनका साथ छोड़ते हुए हम लोगोंको विछुड़नेका दुःख हो रहा था । आँखें आँसुओंसे भीग रही थीं। पंडितजीने मुझे हर परिस्थितिमें, धैर्य से काम लेते हुए अपने अध्ययनको जारी रखते हुये, परीक्षायें देते हुए प्रगतिपर बढ़ने को प्रोत्साहित किया एवं शुभाशीर्वाद दिया।
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