Book Title: Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Author(s): Vasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 15
________________ 14 रहा ! प्राकृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने इस विभाग में एक वर्ष का पोस्ट ग्रेज्युएट प्राकृत सर्टिफिकेट कोर्स और एक वर्ष का गौण (प्राकृत को मुख्य प्राकृत विषय बनाकर पुनः ) प्राकृत में एम० ए० का अभ्यासक्रम प्रारंभ करवाया । अध्यापन के कार्य के साथ साथ उन्होंने संशोधन की प्रवृत्ति भी चालू रखी और आज तक ४० कॉन्फरेंस और सेमिनार में भाग लेकर संशोधन-पत्र प्रस्तुत किये। उन्होंने दो बार स्वयं गुजरात विश्वविद्यालय में (सेमिनार ) विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया । १९७३ में 'प्राकृत भाषा ' पर और १९८६ में 'जैन आगम - साहित्य' पर । १९९७ में अन्य संस्थाओं के सहयोग से अपनी संस्था 'प्राकृत जैन विद्या विकास फंड' के द्वारा पू० आचार्य श्री सूर्योदयसूरीश्वरजी और उनके शिष्य आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी की निश्रा में 'जिनागमों की मूल भाषा पर विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया । उनके हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती में १०० से अधिक शोध-पत्र विविध शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और लगभग २० ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं । सन् १९९१ में पूना युनिवर्सिटी के संस्कृत और प्राकृत विभाग में प्राकृत भाषा विषयक चार व्याख्यान दिये थे और १९९४ में मद्रास विश्वविद्यालय के जैन- विद्या में "जैन- दर्शन और धर्म" पर दो व्याख्यान दिये । इसके अतिरिक्त जैन विश्वभारती (लाडनूं) में कुछ दिनों के लिए प्राकृत का अध्यापन कार्य भी किया और दिल्ली में 'भोगीलाल लहेरचंदर इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलोजी' में ग्रीष्मावकाश में चलाये जानेवाले प्राकृत के वर्गों में भी दो-तीन बार अध्यापन का कार्य किया । एक बार सौराष्ट्र विश्व विद्यालय में भी 'प्राकृत साहित्य' पर व्याख्यान दिये । वे गुजरात विश्वविद्यालय के प्राकृत-पालि बोर्ड ऑफ स्टडीज के वर्षों अध्यक्ष रहे । नागपुर एवं मो० सु० उदयपुर विश्वविद्यालय के प्राकृत बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं । 'अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सभा' के १९७९ के शांतिनिकेतन के अधिवेशन में "प्राकृत और जैन विद्या" विभाग में श्रेष्ठ शोधपत्र के लिए उनको "मुनिश्री पुण्यविजयजी पुरस्कार" प्राप्त हुआ । "अखिल भारतीय प्राकृत सभा" के बैंगलोर में प्रथम राष्ट्रीय संमेलन में १९९० में उनका पुरस्कार सहित सम्मान किया गया और १९९६ में भावनगर में "कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्म शताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षण निधि" अहमदाबाद की तरफ से सम्मानित करके "हेमचन्द्राचार्य सुवर्णपदक" प्रदान कर उन्हें पुरस्कृत किया गया । १९९७ में थराद ( पालनपुर) में अखिल भारतीय श्री राजेन्द्रसूरि त्रिस्तुतिक जैन नवयुवक परिषद के वार्षिक संमेलन में राष्ट्रसंत श्रीमद् जयन्तसेनसूरीश्वरजी की निश्रा में सम्मानित करके उन्हें पुरस्कृत किया गया । डॉ॰ चन्द्रा का संशोधन के क्षेत्र में अति महत्त्वपूर्ण प्रदान जैन आगमों की 'मूल अर्धमागधी' भाषा संबंधी है। अनेक वर्षों पर्यन्त सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन करके उन्होंने श्वेताम्बर जैन आगमों की मूल भाषा (खास करके प्राचीनतम आगमों की मूल भाषा) यानी मूल अर्धमागधी के स्वरूप के बारे में जबरदस्त ऊहापोह किया है और उसका स्वरूप कैसा होना चाहिए इस मुद्दे पर अनेक लेख प्रकाशित किये । उस प्रकार की भाषा के मॉडल पर उनका 'आचारांग ' के प्रथम श्रुत- स्कंध के प्रथम अध्ययन का संपादन जैन साहित्य और संशोधन के क्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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