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चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंका-दारः
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व्याप्तमान जगवंत वाणी कहे, इहां एम कह्युं जे जगवा ननी ध्वनी सर्व समवसरणमां रह्या एवा संज्ञि जीवोए वांचा अर्थ तेने प्राप्तिनी कारणनूत थाय, कारणके भगवानना एवा अतिशय बे; इहां कोई प्रश्न करे बे के सर्वकार्य करी रह्या एवा जगवान श्या माटे तीर्थने नमे बे? तेने उत्तर तीर्थनाम श्रुत ज्ञाननुं बे ते श्रुतज्ञानपूर्वक परिहंत तीर्थकर्त्ता तेना ( श्रुतज्ञानना) अभ्यासथी तीर्थंकर या एटले पूर्वेश्रुतज्ञान पाम्या पढी ते श्रुतज्ञाने करी क्रियाकलाप करवाथी तीर्थंकर थया ए श्रुतनो उपगार जाणी श्रुतज्ञानने नमे बे; वली तीर्थंकर जेनी पूजा करे ते लोकमां पूजित वे एव जणाववाने पा. नम स्कार प्रवृत्ति बे, तथा विनयमूल धर्म कस्यो थाय एटले विनय जणाव्यो; अथवा जे कृतकृत्य थया ते पण कथा कहे, श्रुतने नमे, तो बीजानए तो अवश्य एम करवुं; इहां कोई वली प्रश्न करे के एम धर्म कहेवो ते पण कृतकृत्यने न जोइये ? तेने उत्तर एबेजे एम न बोलवुं, केमके ए भगवानने हालमां तीर्थंकर नामगोत्र कर्मनो विपाकमा धर्मकथा कहे; ने एम न मानश्यो तो ते तीर्थंकर नामकर्मनो विपाक केम बूटइये ए निर्यूक्तिनु वचन बे. ए पाठमां तो तीर्थशब्दे श्रुतने नमस्कार बे साधु साधवी श्रावक श्राविकानुं कथन नथी २ तथा दीपिका
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